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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [पाचारांग अथाह सागर तुल्य जैन दर्शन को इस एक ही सूत्र रूप गागर में समाविष्ट कर दिया गया है । सच्ची मानवता का प्रतीक यह सूत्र जैन धर्म को विश्व धर्म के गौरव गरिमापूर्ण पद पर प्रतिष्ठापित करने के लिये पर्याप्त है । ७८ द्वितीय उद्देशक में प्रासव एवं संवर द्वारों का विवेचन करते हुए बताया गया है कि भाव एवं संवर एकान्ततः स्थान भौर क्रिया पर नहीं अपितु मूलत: साधक की क्रमशः शुभाशुभ तथा विशुद्ध भावना पर निर्भर करते हैं प्रतः साधक को राग द्वेष से रहित विशुद्ध भावना रखने के लिये सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। तृतीय उद्देशक में साधक को उपदेश दिया गया है कि वह भाव-विशुद्धि द्वारा नये कर्मों के ग्रागमन को रोकने के साथ-साथ पूर्वसंचित कर्मों का नाश करने के लिये यथाशक्य तप-साधना में निरत रहे । चौथे उद्देशक में साधनामार्ग को कठोर भौर वीरों का मार्ग बताते हुए साधक को उपदेश दिया गया है कि वह समस्त ऐहिक सुखों और अपने शरीर के प्रति भी ममत्व का त्याग कर सम्यक्त व द्वारा महिंसा, संवर भौर निर्जरा पर प्राप्त हुई अपनी श्रद्धा को सदा अपने श्राचररण में उतारने का प्रयत्न करता रहे। चारों उद्देशकों का यही विषयक्रम निर्युक्ति एवं वृत्ति में निर्दिष्ट है और यही क्रम प्राचारांग में प्राज भी विद्यमान है । पंचम अध्ययन पांचवें अध्ययन का नाम लोकसार अध्ययन है । इसके आादि, मध्य और अंत में 'प्रावति' शब्द भाया है इस दृष्टि से इसका दूसरा नाम 'प्रावंति अध्ययन' भी रखा गया है। इसमें समग्र लोक के सारभूत धर्म -मर्म का निरूपण करते हुए बताया गया है कि लोक में सारभूत तत्व धर्म, धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम और संयम का सार मोक्ष है। प्रस्तुत अध्ययन में ६ उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में प्राणिहिंसा को कर्मबन्ध एवं भवभ्रमरण का कारण बताते हुए कहा गया है कि जो कोई व्यक्ति किसी प्रयोजन अथवा बिना किसी प्रयोजन के प्राणियों की हिंसा करता है, वह निरन्तर उन्हीं जीवों में घूमता हुआ दुस्सह दुःखों का अनुभव करता है । हिंसा, संशय एवं भोगों का परित्याग किये बिना कोई प्राणी संसारसागर से पार नहीं हो सकता । द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि सभी प्राणी जीना और सुखी रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, श्रतः सच्चा मुनि वही है जो किसी जीव की हिंसा नहीं करता और हिंसाजन्य पाप से सदा दूर रहता है । तृतीय उद्देशक में साधक को उपदेश दिया गया है कि वह सर्वथा अपरिग्रही रह कर कामोन्मुख एवं भोगासक्तं प्रपनी श्रात्मा के साथ युद्ध करते हुए अपनी श्रात्मा पर विजय प्राप्त करे । बाह्य युद्धों को अनार्य युद्ध की संज्ञा देते हुए आत्मविजय हेतु किये जाने वाले युद्ध को ही श्रार्य युद्ध एवं सच्चा युद्ध बताया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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