SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [५. विवाह पण्णत्ति ८४ लाख पद बताई गई है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सरि ने व्याख्या प्रज्ञप्ति की टीका में इस पर "विशिष्टसम्प्रदायगम्यानि" केवल इतना ही लिखा है। इससे आगे की गाथा में संघ की समुद्र के साथ तुलना करते हुए उसकी स्तुति की गई है। इसके पश्चात् गौतम आदि गणधरों को, भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति मौर द्वादशांगी रूप गरिणपिटक को नमस्कार किया गया है। तदनन्तर प्रतिलिपिकार ने कच्छप के समान सुगुप्त चरणों वाली कोरंट वृक्ष के अम्लान (नवविकसित) कुसुम की कली के समान मनोहर भगवती श्रुतदेवी से प्रार्थना की है कि वह उसके अज्ञानान्धकार को विनष्ट करे । ३ श्रुतदेवी की स्तुति के पश्चात् व्याख्याप्रज्ञप्ति के पठन-पाठन के श्रम के साथ-साथ विधि आदि का उल्लेख किया गया है । । अन्त में प्रतिलिपिकार द्वारा तीन गाथानों में श्रुतदेवी आदि की निम्नलिखित रूप में स्तुति की गई है - प्रखर बुद्धि वाले विद्वानों द्वारा सदा अभिवंदित, अज्ञानान्धकार विध्वंसिनी नवविकसित शतदलकमल वरद हस्त में लिये हुए श्रुताधिष्ठातृ देवी मुझे भी बुद्धि प्रदान करे । जिसके कृपा प्रसाद से ज्ञान सीखा है उस श्रुतदेवता को हम प्रणाम करते हैं । शान्ति प्रदायिनी प्रवचनदेवी को भी मैं नमस्कार करता हूं। श्रुतदेवता, कुम्भधरयक्ष, ब्रह्मशान्ति, वैरोटयादेवी, विद्यादेवी और अंतहंडी लेखक की सब प्रकार के विघ्नों से रक्षा करे । व्याख्याप्रज्ञप्ति की मंगलसहित ग्रन्थान० संख्या १५७५१ बताई गई है। व्याख्या प्रज्ञप्ति की समाप्ति के पश्चात् जो "रणमोगोयमाइण" आदि जितने भी नमस्कारपरक उल्लेख हैं उनके सम्बन्ध में टीकाकार ने लिखा है कि ये सब लिपिकार अथवा प्रतिलिपिकार द्वारा किये गये नमस्कार हैं।" ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति के अंत में जो इसके पठन-पाठन का क्रम दिया गया है वह किसी श्र तस्थविर द्वारा साधकों के हितार्थ किया गया उल्लेख प्रतीत होता है। १ चुलसीयसयसहस्सा, पयारण पवरवरणाणदंसीहिं । भावाभावमणंता, पन्नता एत्थमंगंमि ।। ४१वें श० के अन्त में २ तवनियमविणयवेलो, जयइ सया नारणविमलविउलजलो। हेउसयविउलवेगो, संघसमुद्दो गुणविसालो। वही३ (कुसुम) कुम्मसुसंठियचलणा, अमलियकोरंटवेंटसंकासा। सुयदेवया भगवई, मम मइतिमिरं पणासेउ । वही४ वियसियअरविंदकरा, नासियतिमिरा सुयाहिवा देवी । मझ पि देहु मेहं, बुधविबुहणमंसियारिणच्चं ॥१॥ सुयदेवयाए परणमिमो जीए पसाएण सिक्खियं नाणं । अण्णं पवयणदेवी संतिकरी तं णमंसामि ॥२॥ सुयदेवया य जक्खो कभधरो बंभसंति वेरोद्रा। विज्जा य अंतहुडी, देउ अविग्धं लिहंतस्स ।।३।। - - (व्याख्याप्रज्ञप्ति की समाप्ति के अनन्तर) .५ णमो गोयमाइण' मित्यादय पुस्तकलेखककृता नमस्काराः प्रकटाश्चेिति । - (व्याख्याप्राप्ति, टीका) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy