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________________ f जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [५. वियाह-पत्ति इस प्रकार की शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है । सामान्य रूप से जिस ग्रन्थ में किसी अन्य सूत्र अथवा सूत्रकार का नाम उपलब्ध होता है उसे, जिस ग्रन्थ में उसका उल्लेख है उस ग्रन्थ की रचना से पूर्ववर्ती माना जाता है किन्तु जैन सूत्रों पर इस प्रकार की बात घटित नहीं होती । कारण कि रचना के भी पश्चात् सूत्र शताब्दियों तक गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलते रहे । वीर - निर्वाण ६८० में सूत्र अन्तिम रूप से लिपिबद्ध किये गये । ऐसा प्रतीत होता है कि श्रागमों को लिपिबद्ध करते समय इस नियम का पालन करना आवश्यक नहीं समझा गया कि जिस अनुक्रम से आगमों की रचना हुई है उसी क्रम से उनको लिपिबद्ध किया जाय । इसके परिणामस्वरूप पश्चाद्वर्ती काल में रचित कतिपय श्रागमों का लेखन सुविधा की दृष्टि से पहले सम्पन्न कर लिया गया । तदनन्तर रचनाक्रम की दृष्टि से प्रथम, द्वितीय, तृतीय प्रादि स्थान पर माने जाने वाले श्रागमों का लेखन किया गया तो पश्चाद्वर्ती श्रागम होते हुए भी जो पहले लिपिबद्ध कर लिये गये थे और उनमें पूर्ववर्ती जिन प्रांगमों के जो-जो पाठ अंकित हो चुके थे उन पाठों की पुनरावृत्ति न हो इस दृष्टि से बाद में लिपिबद्ध किये जाने वाले पूर्ववर्ती भागमों में " ज़हा नन्दी" आदि पाठ देकर पश्चाद्वर्ती आगमों और श्रागमपाठों का उल्लेख कर दिया गया । यह केवल पुनरावृत्ति को बचाने की दृष्टि से किया गया। इससे मूल रचना की प्राचीनता में किसी प्रकार की किंचित् मात्र भी न्यूनता नहीं प्राती । हो सकता है उस समय आगमों को लिपिबद्ध करते समय पुनरावृत्ति के दोष से बचने के साथ-साथ इस विशाल पंचम अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति के प्रति विशाल स्वरूप एवं कलेवर को थोड़ा लघु स्वरूप प्रदान करने की भी उन देवगिरिग क्षमाश्रमरण प्रादि प्राचार्यों की दृष्टि रही हो । १४० इसके अतिरिक्त अन्य भी मन्दमेघा आदि कारण व्याख्या प्रज्ञप्ति के कलेवर को छोटा बनाने के हो सकते हैं अथवा नहीं इस पर इतिहास के विशेषज्ञ मुनि एवं विद्वान् प्रकाश डालने का सद्प्रयास करेंगे, ऐसी आशा है । अपरनाम - भगवती इस पंचम अंग का अपर नाम भगवती सूत्र भी है जो वियाह पष्णत्ति ( व्याख्या प्रज्ञप्ति) नाम की अपेक्षा प्रसिद्ध एवं प्रचलित । अन्य सभी अंगों की अपेक्षा अधिक विशाल इस व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक पंचम अंग में भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम गणधर द्वारा प्रभु के समक्ष प्रस्तुत किये गये प्रश्नों एवं भगवान् द्वारा दिये गये उनके तात्विक उत्तरों का सुविशाल संकलन होने के कारण इसके प्रति सर्वाधिक, सम्मान, आदर और पूज्यभाव प्रकट करने हेतु बहुत सम्भव है कि विगत कतिपय शताब्दियों से वियाहपण्णत्ति नामक इस पंचम अंग को भगवती सूत्र इस प्रति सम्माननीय नाम से सम्बोधित किया जाने लगा हो । आज तो चतुविध तीर्थ में यह पंचम अंग भगवती सूत्र के नाम से ही लोकप्रिय है । : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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