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________________ प्रार्य जम्बू के पूर्वभव] केवलिकाल : आर्य जम्बू १६३ प्रद पाख्यान सुना है । वह मैं आपको सुनाना चाहती हूँ । कृपया ध्यान से सुनिए : भवाटवी के संकटों से संत्रस्त एक मुमुक्ष ब्राह्मण अपने पुत्र के साथ एक महाश्रमरण के पास पंचमहाव्रतों की दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करने लगा। वह कठिन श्रमणाचार का पूरी तरह से पालन करता हुआ भिक्षा में प्राप्त रूखे-सूखे भोजन से तप के पारणे करता। पर उसका पुत्र कठोर. साधुमार्ग से विचलित होकर बार-बार उससे कहता- “खन्त ! मैं यह रूखा-सूखा भोजन नहीं खा सकता। खन्त ! मैं इस स्वादरहित और विरस, भिक्षा में मिले पेय पदार्थ - पानी आदि भी नहीं पी सकता।" . उस श्रमण ने अपने पुत्र को अनेक प्रकार से समझाया कि पंच महाव्रतों का पालन करने से दिव्य सुखों की उपलब्धि और अन्त में अक्षय शिव-मुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार कुछ समय तक तो वह छोटा मुनि अपने पिता के समझाने-बुझाने से येन-केन प्रकारेण श्रमणाचार का पालन करता रहा पर एक दिन उसने अपने पिता से स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि शुष्क एवं नीरस खान-पान से उसकी शारीरिक शक्ति पूर्णरूपेण क्षीण हो चुकी है अतः वह अव एक क्षण के लिए भी कठोर श्रमणाचार का पालन नहीं कर सकता। यह कह कर उसने साधु-वेश का परित्याग कर दिया और वह एक परिचित ब्राह्मण के घर पर कामकाज करने लगा। वृद्ध मुनि ने निरतिचार श्रमण-धर्म का पालन करते हुए समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण की और वे सौधर्मेन्द्र के सामानिक देव हुए। इधर कुछ समय पश्चात् ब्राह्मण ने उस युवक के साथ अपनी कन्या का पाणिग्रहण करा दिया। विवाह के समय डाकुओं ने ब्राह्मण के घर पर आक्रमण किया और नवविवाहित दम्पती उन डाकुओं द्वारा मौत के घाट उतार दिये गए। श्रमणधर्म से च्युत भोगलोलुप वह ब्राह्मणपुत्र प्रार्तध्यान से मर कर महिष के रूप में उत्पन्न हुआ। बड़े होने पर उस भैंसे को एक कर व्यक्ति ने खरीद लिया और उससे भार ढोने का कार्य लेने लगा। वह उस पर अधिक से अधिक भार लादता और उस पर स्वयं बैठकर डंडों के प्रहार करता हुअा एक स्थान से दूस - स्थान पर ले जाता। एक बार ग्रीष्मकाल की मध्याह्नवेला में उस भैसे के स्वामी ने उस पर अत्यधिक भार लादा और उस पर यष्टिप्रहारों की बौछार करता हुया एक गांव से दूसरे गांव की मोर बढ़ा। ग्रीष्म ऋतु की चिलचिलाती धूप के कारण मार्ग की वाल आग की तरह जल रही थी। दुवह भार, लगुड़-प्रहार, भीषण गर्मी और प्रतप्त बालुकरणों के कारण भैसे की जिह्वा बाहर निकल पाई और वह आग की तरह जलती हई धरती पर धड़ाम से गिर पड़ा। भैंसे के स्वामी ने इस पर क्रुद्ध हो पूरी शक्ति के साथ यष्टिप्रहार प्रारम्भ कर दिये। बेबस भैंसा मरणासन्न सा हो गया। सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए ब्राह्मण मुनि ने महिप रूप में उत्पन्न हुए अपने पुत्र की दयनीय दशा देख कर उसे प्रतिबोध देने का निश्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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