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________________ भारशिवों का प्रभ्युदय] सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह ६३७ प्रारम्भिक अभ्युदय का समय वीर निर्वाण सं० ६३३ के पश्चात् का अनुमानित किया जाता है। . भारशिव नागवंशी मूलतः पद्मावती, कान्तिपुरी और विदिशा के निवासी थे। ब्रह्माण्ड पुराण और वायुपुराण में नागों को वृष (शिव का नन्दी) नाम से सम्बोधित करते हुए इनके विशाल साम्राज्य का उल्लेख किया गया है। जिसमें मद्र (पूर्वी पंजाब), राजपूताना, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, मालवा, बुन्देलखण्ड और बिहार आदि प्रदेश सम्मिलित थे। शुंगकाल में शेष, भोगिन, रामचन्द्र, धर्मवर्मन और बंगर इन पांच नागवंशी राजानों का विदिशा में राज्य होने के प्रमाण मिलते हैं। इसके अतिरिक्त शुंगोत्तरकाल में भूतनन्दी, शिशुनन्दी, यशनन्दी, पुरुषदात, उसभदात, कामदात, भवदात तथा शिवनन्दी नामक पाठ नागराजामों का विदिशा में राज्य होना कतिपय शिलालेखों एवं मुद्राओं से प्रमाणित होता है। कनिष्क द्वारा कुषारण राज्य के विस्तार के समय ईसा की प्रथम शताब्दी के अन्तिम चरण में नागों को अपने मूल निवास-स्थान विदिशा, पद्मावती और कान्तिपुरीको छोड़कर मध्यभारत की ओर सामूहिक निष्क्रमण करना पड़ा। ये लोग विन्ध्य के पाश्र्ववर्ती प्रदेशों में निर्वासितों की तरह रहने लगे। विदिशा, पद्मावती और कान्तिपुरी पर कुषाणों ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। नाग लोगों को कुषाणों की बढ़ती हुई प्रबल शक्ति के कारण निष्क्रमण करना पड़ा था पर समु. चित अवसर प्राप्त होते ही अपने परम्परागत राज्य पर पूनः अधिकार कर लेने की अभिलाषा उनके अन्तर में बलवती बनी रही। अतः वे लोग अवसर की प्रतीक्षा में शक्ति संचय करते रहे। नागों ने अपने निर्वासनकाल में नागपुर, पुरिका, रीवां आदि के शासकों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क बनाये रखा। ____ कनिष्क को मृत्यु के उपरान्त नागों ने अपने मूल निवास स्थान विदिशा प्रादि को कुषाणों की दासता से पुनः मुक्त कराने का दृढ़ संकल्प किया। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये वे सैनिक अभियान हेतु सभी आवश्यक सामग्री जुटाने में बड़ी तत्परता से जुट गये। २३ आर्य रेवतीमित्र-युगप्रधानाचार्य (वीर नि० सं० ६८९-७४८) आर्य नागेन्द्र के पश्चात् आर्य रेवतीमित्र युगप्रधानाचार्य हुए। आपका यत्किचित् परिचय वाचनाचार्य आर्य रेवतीनक्षत्र के साथ दे दिया गया है। भारशिव और कुषाण महाराजा हुविष्क प्रतापी महाराजा कनिष्क की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र हुविष्क मनमानतः वीर नि० सं० ६३३ (ई० सन् १०६) में कुषाणवंश के विशाल साम्राज्य का अधिपति बना । हुविष्क के शासनकाल में नाग जाति की.भारशिव शाला पुनः एक राज्यशक्ति के रूप में उदित हुई। भारशिवों ने विन्ध्य के निकटवर्ती प्रदेशों में अपनी शक्ति बढ़ाने के साथ-साथ कुषाण साम्राज्य पर प्राक्रमण करने प्रार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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