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________________ ६७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चन्द्रगुप्त द्वितीय मेहरौली का लोहस्तम्भलेख द्वितीय चन्द्रगप्त विक्रमादित्य का है अथवा चन्द्र नामक किसी अन्य राजा का, यह इतिहास के विद्वानों के लिये आज भी प्रश्न ही बना हुआ है। विद्वानों ने इस सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं प्रकट करते हुए अनेक ऊहापोहों के साथ अपने-अपने अभिमत की पुष्टि में बहुत सी युक्तियां प्रस्तुत की हैं। उन सब अभिमतों पर गहन विचार करने के पश्चात् भी द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा यशस्वी विष्णुभक्त, समस्त भारत ही नहीं अपितु बालीक देश तक अपनी विजयं का डंका बजाने वाला परम प्रतापी एकराट् चन्द्र भारतीय इतिहास के क्षितिज में खोजने पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके विपरीत अन्य किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में यही कहना होगा कि मेहरौली का लोहस्तम्भ अभिलेख गुप्त-सम्राट् द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का ही है। प्रार्य भूतदिन्न के समय की राजनैतिक स्थिति द्वितीय चन्द्रगुप्त-विक्रमादित्य की मृत्यु के उपरान्त उसका बड़ा पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) विशाल गुप्तसाम्राज्य का स्वामी बना। उसकी माता का नाम ध्रुवदेवी था।' कुमार गुप्त के शासनकाल के अनेक शिलालेख और दानपत्र मिलते हैं, जिनसे इसके विशाल साम्राज्य, शौर्य, शासन पद्धति, सुशासन एवं धार्मिक सहिष्णुता आदि के सम्बन्ध में बड़ी महत्त्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इन अभिलेखों में गुप्त सं. ६६. (ई. सन् ४१५) से पूर्व का तथा गुप्त सं. १३५ (ई. सन् ४५४) के पश्चात् का कोई अभिलेख नहीं है अतः यह अनुमानित किया जाता है कि ई. सन् ४१४ से ४५५ तदनुसार वीर नि. सं. ६४१ से .९८२ तक कुमार गुप्त का शासन रहा। इसके चांदी के सिक्कों पर अंकित अन्तिम तिथि गुप्त सं. १३६ (वीर नि. सं. ९८२) है, इससे भी उपर्युक्त अनुमान की पुष्टि होती है। कुमार गुप्त प्रथम के विभिन्न सिक्कों पर लालित्यपूर्ण संस्कृत भाषा के छोटे-छोटे एवं सुन्दर भिन्न-भिन्न वाक्य अंकित हैं, जो इस प्रकार हैं :.. (१) विजितावनिरवनिपतिः (पृथ्वीविजयी पृथ्वीपति) (२) महितलं जयति (सम्पूर्ण पृथ्वी का विजेता) (३) क्षितिपतिरजितो विजयी महेन्द्रसिंहो दिवं जयति (पूरी पृथ्वी का स्वामी, अविजितों का विजेता महेन्द्रसिंह स्वर्ग-विजय कर रहा है)। (४) साक्षादिव नरसिंहो सिंह-महेन्द्रो (साक्षात् नृसिंह तुल्य हैं सिंह-महेन्द्र) (५) युधि सिंहविक्रमः (युद्ध में सिंह के समान पराक्रमशाली), ' महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तस्य महादेव्यां ध्र वदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज कुमारगुप्तस्य। [भिलसद, जिला एटा का स्तम्भलेख - फ्लीट का लेख सं. १०] २ भिलसद का स्तम्भलेख [फ्लीट का लेख सं. १०] 3 मथुरा के गुप्त संवत् ११३ एवं गुप्त सं. १३५ के जन प्रभिलेख । [कारपस इन्स्कृपशनं इंडिकेरम् भाग ३, सं. ६३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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