SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 840
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा और षट्खण्डागम हेदन एवैकस्य द्विज-पंक्ति विषमितामपास्य सुरैः।। कृत्वा कुन्दोपमितां नाम कृतं पुष्पदन्त इति ॥१२७।। अपरोऽपि तुर्यनादर्जयघोषैर्गन्धमाल्यधूपाद्यः । भूतपतिरेष इत्याहूतो भूतैर्महं कृत्वा ।।१२८।। स्वासनमृति ज्ञात्वा मा भूत्संक्लेशमेतयोरस्मिन् । इति गुरुणा संचिन्त्य द्वितीय दिवसे ततस्तेन ॥१२६।। प्रियहित वचनैरमुष्य तावुभावेव कुरीश्वरं प्रहितौ। ................................. .............. ॥१३०।। -अथ पुष्पदन्त मुनिरप्यध्यापयितुं स्व भागिनेयं तम् । कर्म प्राकृतिप्राभृतमुपसंहायैव षड्भिरिह खण्डैः ।।१३४॥ वांछन् गुणजीवादिकविंशतिविधसूत्रसत्प्ररूपणया। युक्त जीवस्थानाद्यधिकारं व्यरचयत्सम्यक् ।।१३।। सूत्राणि तानि शतमध्याप्य ततो भूतबलिगुरोः पार्श्वम्। तदभिप्रायं ज्ञातुं प्रस्थापयदगमदेशेऽपि ॥१३६।। तेन ततः परिपठितां, भूतबलिः सत्प्ररूपणां श्रुत्वा । षट्खण्डागमरचनाभिप्रायं पुष्पदन्तगुरोः ।।१३७।। विज्ञायाल्पायुष्यानल्पमतीन्मानवान् प्रतीत्य ततः । द्रव्यप्ररूपणाद्यधिकारः खण्डपंचकस्यान्वक् ॥१३८।। सूत्राणिषट्सहस्रग्रन्थान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि । प्रविरच्य महाबन्धाह्वयं ततः षष्टकं खण्डम् ॥१३६।। त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रन्थं व्यरचयदसौ महात्मा । तेषां पञ्चानामपि खण्डानां शृणत नामनि ॥१४०॥ --एवं षट्खण्डागमरचनां प्रविधाय भूतबल्यायः । आरोप्यासद्भावस्थापनया पुस्तकेषु ततः ।।१४२।। इन्द्रनन्दी के कथन का सारांश यह है कि वीर नि० सं० ६८३ में अंतिम प्राचारांगधर लोहार्य के स्वर्गगमन के साथ अंग ज्ञान का भी विच्छेद हो गया। उनके पश्चात् पूर्व और अंगज्ञान के एक-देश-धर क्रमशः (१) विनयधर, (२) श्रीदत्त, (३) शिवदत्त, (४) अर्हद्दत्त, (५) अहंवली और (६) माघनन्दी नामक आचार्य हुए । माघनन्दी से अनिश्चित काल पश्चात् धरसेन नामक महान् तपस्वी प्राचार्य हुए। धरसेन के समय, इनकी गुरु परम्परा अथवा शिष्य परम्परा आदि से सम्बन्धित किसी प्रकार की सूचना देने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए इन्द्रनन्दी ने लिखा है कि इस सम्बन्ध में न तो किसी मुनि को जानकारी है और न कहीं किसी पुस्तक में ही इस प्रकार का कोई उल्लेख उपलब्ध होता है।' आचार्य १ गुणधर धरसेनान्वय गुर्वोः पूर्वापरकमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।।१५१॥ [श्रुतावतार - इन्द्रनन्दीकृत] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy