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________________ ७४७ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण अंगों का ज्ञाता माने जाने की स्थिति में यह प्रश्न एक जटिल पहेली का रूप धारण कर लेता है। __इस प्रकार प्राचार्यों के काल के सम्बन्ध में जो तथ्य ऊपर प्रस्तुत किये गये हैं, उन सब पर और विशेषतः हरिवंश पुराण एवं श्रुतावतार में लोहार्य से उत्तरवर्ती वीर निर्वाण सं०६८३ के पश्चात् की प्राचार्य-परम्परा के जो उल्लेख ऊपर उद्धत किये गये हैं, उन पर निष्पक्ष एवं सूक्ष्म दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली भट्टारककालीन किसी अति साधारण रचनाकार की नितान्त साधारण, त्रुटिपूर्ण एवं अपूर्ण कृति होने के कारण वस्तुतः अविश्वसनीय और अप्रामाणिक है । एकादशांगधरों के काल के विषय में की गई काट-छांट, दश, व एवं पाठ अंगधरों की कल्पना के साथ उनके काल के सम्बन्ध में जोड़-तोड़, लाहाचार्य के पश्चात् हुए विनयंधर आदि चार प्राचार्यों को प्राचार्यों के क्रम में सम्मिलित तक न करना, अंगपूर्वज्ञान के एक देशधर प्राचार्य अर्हबलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि को एक अंगधारी मनवाने का प्रयास करना, ये सब बातें वस्तुतः पट्टावलीकार को स्वयं को ऐसी कल्पनाएं हैं, जिनके समर्थन में दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण साहित्य का मंथन करने पर भी एक शब्द तक उपलब्ध नहीं होगा। ऐसी दशा में नंदीसंघ की प्राकृत पावली की किसी भी तरह प्रामाणिकता की कोटि में गणना नहीं की जा सकती। ऐसा प्रतीत होता है कि कतिपय प्राचार्यों को उनके वास्तविक काल से प्राचीन सिद्ध करने के उद्देश्य से भट्टारक काल में इस पट्टावली की रचना की गई है। दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण वाङ्मय से पूर्णतः विरुद्ध जो विचित्र मान्यताएं नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली में प्रस्तुत की गई हैं, उनके सम्बन्ध में स्व० डॉ० हीरालालजी ने लिखा है "उससे अकस्मात् अंग लोप सम्बन्धी कठिनाई कुछ कम हो जाती है ।" दिगम्बर परम्परा के सभी प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थों में जिस प्रकार वीर नि० सं० ३४५ में पूर्वज्ञान का और ६८३ में अंगज्ञान का विच्छिन्न होना बताया गया है; नन्दीसंघ की पट्टावली में भी इन दोनों प्रकार के ज्ञान का ठीक उसी समय में विच्छेद बताया गया है। ऐसी दशा में इससे काल की कठिनाई तो किंचित्मात्र भी कम नहीं होती। केवल तीन अंगों के लोप की कठिनाई काल की दृष्टि से नहीं अपितु क्रम की दृष्टि से कुछ कम होती है पर शेष ६ अंगों के अकस्मात् लोप की कठिनाई तो ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। इसी प्रकार पूर्वज्ञान के लोप की कठिनाई में भी इस पट्टावली के उल्लेखों से किसी प्रकार की कमी नहीं आती। कठिनाई को कम करना तो दूर इस पट्टावली ' इनके पश्चात् प्रागे के जिन चार प्राचार्यों को अन्यत्र एकांगधारी कह कर श्रुतज्ञान की परंपरा पूरी कर दी गई है उन्हें यहां क्रमशः दश,नव और पाठ अंगों के धारक कहा है, पर यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि कौन कितने अंगों का ज्ञाता था। [षट्खण्डागम, भाग १, द्वि० सं०, प्र०, पृष्ठ २३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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