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________________ ३५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा० रल० के अनुसार नगर की ओर गया। पर यह देखकर उसके प्राश्चर्य का पारावार न रहा कि उस स्थान पर नगर का नामोनिशां तक नहीं। केवल उसका कमण्डलु एक वृक्ष की टहनी पर टंगा हुआ है। ब्रह्मचारी अपना कमण्डलु लिये मुनिमण्डल के पास लौटा और विशाखाचार्य आदि समस्त मुनियों को आश्चर्य में डालते हुए उस 'नगर के अन्तर्धान होने और वृक्ष की टहनी पर अपने कमण्डलु के मिलने का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। विशाखाचार्य ने कहा कि निश्चित रूप से यह सब कुछ मुनि चन्द्रगुप्ति के विशुद्ध चारित्र का चमत्कार था। इन्हीं के पुण्य प्रताप से देवताओं ने उस मायानगरी की रचना की थी। विशाखाचार्य ने मुनि चन्द्रगुप्ति की उत्कट चारित्रनिष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रतिवन्दना कर कहा- "मुनिश्रेष्ठ ! देवताओं द्वारा कल्पित आहार मुनि को लेना उचित नहीं अतः सब को इसका प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये।" ____ विशाखाचार्य के आदेशानुसार मुनि चन्द्रगुप्ति और सभी मुनिमण्डल ने देवपिण्ड-ग्रहण का प्रायश्चित्त किया। तदनन्तर विशाखाचार्य ने अपने मुनियों के साथ उज्जयिनी की ओर विहार किया। अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए वे उज्जयिनी आये और नगर के वाहर एक सुन्दर उपवन में ठहरे । स्थूलाचार्य ने समस्त मुनिसंघ सहित विशाखाचार्य के लौटने का समाचार सुन कर अपने शिष्यों को उन्हें देखने के लिये भेजा । स्थूलाचार्य के शिष्यों ने विशाखाचार्य के पास पहंच कर उन्हें भक्तिपूर्वक वन्दना की। विशाखाचार्य ने बिना प्रतिवन्दन किये ही उनसे पूछा - "अरे ! मेरी अनुपस्थिति में तुम लोगों ने यह कोनसा दर्शन (मत) अपना लिया है ?" इस पर स्थूलाचार्य के शिष्य लज्जित हो बिना कुछ उत्तर दिये ही अपने गुरु के पास लौट गये और उन्हें पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। इस पर रामल्य, स्थलाचार्य और स्थूलभद्र ने अपने सब मुनियों को एकत्रित कर मन्त्रणा की कि अब उन्हें किस स्थिति को अपनाना चाहिये? वृद्ध स्थूलाचार्य ने अपना यह अभिमत व्यक्त किया कि अब उन्हें कुमार्ग का परित्याग कर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित, मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले छेदोपस्थापनीय चारित्र को ही अपनाना चाहिये । स्थूलाचार्य के उपरोक्त वचन सुन कर वे मुनि लोग क्रुद्ध हो स्थूलाचार्य को कोसते हए कहने लगे- "इस विषम पंचम प्रारक में ऐसे ससाध्य मार्ग का परित्याग कर कौन इतने कष्टकर दुस्साध्य, बावीस परीषहों और अन्तरायादि से कण्ट काकीर्ण दुरूह पथ को अपनायेगा ?" स्थूलाचार्य ने उन साधुओं को समझाने का प्रयास करते हुए कहा- "अभी तो यह पथ तुम्हें किम्माक फर के समान मनोहर प्रतीत होता है किन्तु पन्त में इसका परिणाम अत्यन्त दुखदायक होगा। यह मार्ग मुक्तिप्रद नहीं अपितु अनन्तकाल तक भवभ्रमण कराने वाला है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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