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मा० रत्न के अनुसार] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
३५५ एक समय एक क्षीणकाय नग्न साधु रात्रि के समय लाठी व पात्र हाथ में लिये आहार लेने हेतु यशोभद्र श्रेष्ठी के घर पहुंचा। गर्भवती गृहस्वामिनी अन्धेरे में मुनि की बीभत्स आकृति को देखकर इतनी भयविह्वल हुई कि तत्क्षण उसका गर्भ गिर गया।' इस प्रकाण्ड काण्ड को देखकर मुनि उन्हीं पैरों अपने स्थान को लौट गये। यशोभद्र श्रेष्ठी के घर में कुहराम मच गया। इस दुःखद घटना पर श्रावकों ने मिल कर विचारविमर्श किया और उन्होंने मुनियों के समक्ष जाकर पुनः प्रार्थना की कि वस्तुतः उनका वह विषम स्वरूप भयोत्पादक है अतः जब तक सुभिक्ष न हो जाय तब तक कन्धे पर कम्बल धारण कर के गृहस्थों के घरों में रात्रि के समय भिक्षार्थ जाया करें। मनियों ने श्रावकों की उस प्रार्थना को भी स्वीकार कर लिया और वे धीरे-धीरे शिथिलाचारी बनकर व्रतादि में दोष लगाने लगे।
इस प्रकार उस बारह वर्ष के महाविनाशकारी भीषण भिक्ष में गृहस्थों और मुनियों.को अनेक प्रकार के दारुण दुःख सहने पड़े। बारह वर्ष बीत जाने पर अच्छी वर्षा होने के कारण जब पुनः सुभिक्ष हुमा तो दैवी प्रकोप से पीड़ित प्रजा ने सुख की सांस ली।
___अवन्ती प्रदेश में सुभिक्ष होने की सूचना मिलने पर विशाखाचार्य ने भी अपने मुनिमण्डल सहित दक्षिण से उत्तरी क्षेत्रों की ओर विहार किया। क्रमशः अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए वे उस विकट वन में आये जहां भद्रबाहु ने समाधि ली थी। मुनि चन्द्रगुप्ति द्वारा अंकित भद्रबाहु के चरणयुगल में उन सब ने प्रणाम किया।
___ मुनि चन्द्रगुप्ति ने विशाखाचार्य को प्रणाम किया पर विशाखाचार्य ने यह विचारते हुए प्रतिवन्दन नहीं किया कि श्रावकों से विहीन उस विकट वन में वह मुनि १२ वर्ष तक किस प्रकार श्रमणाचार का पालन कर सका होगा। उस वन में कहीं भोजन नहीं मिलेगा, इस विचार से उस दिन विशाखाचार्य एवं उनके साथ पाये हुए सब मुनियों ने उपवास रखा।
___ दूसरे दिन मुनि चन्द्रगुप्ति ने विशाखाचार्य से निवेदन किया कि पास में एक बड़ा नगर है, उसमें श्रद्धालु श्रावक निवास करते हैं अतः वहां जाकर समस्त मुनिमण्डल आहार ग्रहण करे। उस वन में कोई बड़ा नगर भी है, यह सुनकर सब मुनियों को बड़ा पाश्चर्य हुमा मौर वे वहां भिक्षार्थ गये। उस नगर में श्रद्धालु श्रावकों ने पग-पग पर मुनियों का वन्दन-सत्कार किया और उन्हें भोजन कराया। पारणा करने के पश्चात् श्रमण संघ प्राचार्य भद्रबाहु के समाधिस्थल पर लौट आया। मुनिमण्डल के साथ का एक ब्रह्मचारी उस नगर में भोजनोपरान्त अपना कमण्डलु भूल पाया था अतः वह अपना कमण्डलु लेने के लिये पुनः 'यही, श्लोक ७८, ७६
वही, श्लोक ८१, ८२, ८४ ।
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