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________________ २६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाटलीपुत्र का निर्माण प्राचार्य अनिकापुत्र ने कहा - "श्राविके ! मैंने कभी इस प्रकार के स्वप्न नहीं देखे पर बिना देखी हुई बातें भी जिनागमों से देखी हई के समान मालूम हो जाती हैं। मंमार में एक भी ऐसी वस्तु नहीं, जो जैन प्रागमों के द्वारा नहीं जानी जा सकती हो।" पुष्पचूला ने प्रश्न किया-"भगवन् ! इस प्रकार के घोर दुःखों से पूर्ण नरकों में जीव किस कारण उत्पन्न होता है ?" अनिकापुत्र ने उत्तर दिया- 'घोर प्रारम्भ-परिग्रह, गुरु के प्रति अविनय, मद्य-मांससेवन, द्यूत, परस्त्री-परपुरुष-गमन, विषयासक्ति, पंचेन्द्रियवध आदि पापों के कारण जीव घोरातिघोर नरकों में उत्पन्न हो अनेक प्रकार के दारुण दुःख भोगता है।" अनिकापुत्र द्वारा किये गये अपने स्वप्नों के समाधान से पुष्पचूला को पूर्ण संतोष प्राप्त हुआ और वह अपने राजप्रासाद में लौट गई। उस रात्रि में देव ने उसे स्वर्ग के अत्यन्त मनोहारी एवं असीम प्रानन्दोत्पादक दृश्य दिखाये।" प्रातःकाल पुष्पचूला ने अनिकापुत्र से अपने इन नवीन सुखद स्वप्नों के सम्बन्ध में पूछा । अनिकापुत्र ने द्वादश देवलोकों, अनुत्तरविमानों आदि के देवों की महद्धि, सुदीर्घायु, शक्ति, ऐश्वर्य एवं सुख प्रादि का वर्णन करते हुए कहा कि अरिहंत, गुरु, साधु और धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति रखने वाले प्राणी के लिये स्वर्गसुखों की प्राप्ति एक साधारण एवं सुसाध्य कार्य है । सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक्चारित्र से प्राणी समस्त कर्मसमूह को ध्वस्त कर परमपद निर्वाण प्राप्त करता है। मनिकापुत्र द्वारा किये गये विवेचन से पुष्पचूला ने संसार का वास्तविक स्वरूप समझ लिया । उसने संसार के घोर दुखों से सदा के लिये अपना उद्धार करने का दृढ़ संकल्प अभिव्यक्त करते हुए अग्निकापुत्र से प्रार्थना की - "भगवन् ! मुझे इस संसार से विरक्ति हो गई है, मैं अपने पति से प्राज्ञा लेकर प्रापके पास संयम ग्रहण करूंगी।" पुष्पचूला ने राजप्रासाद में लौट कर अपने पति के समक्ष अपनी प्रान्तरिक अभिलाषा प्रकट करते हुए कहा - "देव ! मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं प्रवजित हो तपश्चरणपूर्वक संसृति के दुःखों के मूल कारण कर्मसमूह का समूल नाश करूंगी। मुझे प्राज्ञा दीजिये, मैं प्रषित होना चाहती हूं।" पुष्पचूल ने अपनी पत्नी के दृढ़निश्चय को देख कर कहा- "मैं तुम्हें उस ही दशा में प्रवजित होने की प्राज्ञा दे सकता हूं जब कि तुम यह प्रतिज्ञा करो कि प्रजित होने के पश्चात् भी तुम इस राजप्रासाद के ही किसी एक स्थान में रहोगी पोर राजप्रासाद से ही भीक्षा ग्रहण करोगी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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