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________________ पाटलीपुत्र का निर्माण ] केवलिकाल : प्राय जम्बू २६१. पुष्पचूला ने अपने पति के उस आग्रह को स्वीकार कर दीक्षा ग्रहण कर ली एवं पूर्णरूपेण निर्दोष श्रमणाचार का पालन करते हुए शास्त्रों का अध्ययन किया और वह राजप्रासाद में रहकर घोर तपश्चर्याएं करने लगी । कालान्तर में निकापुत्र ने अपने ज्ञान से भावी द्वादशवार्षिक भीषरण दुष्काल का ग्रागमन जान कर अपने श्रमरणसंघ को अन्यत्र भेज दिया और वे जराजीर्ण शिथिलांग होने के कारण पुष्पभद्रा नगरी में ही रहे । वृद्धावस्था के कारण अनिकापुत्र को चलने फिरने में भी कठिनाई होती थी अतः आर्या पुष्पचूला प्रतिदिन राजप्रासाद के अन्तःपुर से निर्दोष प्राहार- पानी समय पर ला कर देती । संसार की प्रसारता के चिन्तन एवं अपने वृद्ध गुरु feng की बड़ी लगन के साथ उत्कट भावना से सेवा करने के फलस्वरूप पुष्पचूला को एक दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई । अब तो पुष्पचला केवलज्ञान की धारिका होने के काररण अनिकापुत्र के मन में जिस-जिस कार्य अथवा वस्तु के लिये विचार उत्पन्न होता उसे तत्काल पूर्ण कर देती । एक दिन प्रत्रिकापुत्र ने पूछा - "जिस वस्तु की जिस समय मैं इच्छा करता हूं, तत्काल वह वस्तु मुझे मिल जाती है । तुम्हें मेरे मनोगत विचारों का ज्ञान कैसे हो जाता है ?" पुष्पचूला ने उत्तर दिया- "भगवन् ! मैं आपकी रुचि को पहचानती हूं।" एक दिन वर्षा हो रही थी, उस समय पुष्पचूला ने आहार ला कर अनिकापुत्र के समक्ष रखा। उन्होंने कहा- "तुम तो श्रमरणाचार को सुचारु रूप से जानने वाली और सम्यकरूपेरण पालन करने वाली हो, फिर इस वर्षा में तुम प्राहार ले कर कैसे भाई ?"" पुष्पचूला ने कहा- "भगवन् ! जिस मार्ग में पानी प्रचित्त हो गया, उस मार्ग से मैं प्राहार- पानी लायी हूं । अतः प्राहार लाने में किसी प्रकार का प्रायश्चित्तं नहीं लगा है ।" " वत्से ! तुमने यह कैसे जान लिया कि उस मार्ग में अप्काय (जल) प्रचि (जीवरहित ) हो गया है ?" अनिकापुत्र ने साश्चर्य प्रश्न किया । केवली 'पुष्पचूला ने कहा - "भगवन् ! मुझे केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई है।" यह सुनते ही अनिकापुत्र ने पश्चात्ताप भरे स्वर में कहा - "भगवती ! श्राप मुझे क्षमा करें। मैंने केवलज्ञानी की प्रासातना की है। मेरा वह पाप निष्फल हो जाय ।" अत्यन्त जिज्ञासापूर्ण स्वर में अनिकापुत्र ने केवली पुष्पचूला से पूछा"प्रभो ! मुझे निर्वारण की प्राप्ति होगी अथवा नहीं ?" केवली पुष्पचूलां ने कहा- " प्राप चिन्ता न करें ! गंगा नदी को पार करते समय आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हो जायगी ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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