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________________ ६७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कुमारगुप्त कोंकण, कुन्तल, पश्चिमी मालवा, गुजरात, कोशल, मेकल, आन्ध्र और सम्पूर्ण विन्ध्य की तलहटी का स्वामी बताया है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी दिग्विजय में इन प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि कुमार गुप्त के शासन के अन्तिम वर्षों में वाकाटकों, पुष्यमित्रों, पट्टमित्रों (पटुमित्रों) एवं मेकलवासियों ने स्वातन्त्र्यप्राप्ति के लिये गुप्त साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया हो। उस सम्मिलित प्रयास को स्कन्दगुप्त द्वारा कुचल दिये जाने के अनन्तर भी वाकाटक लोग अपनी खोई हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील एवं अवसर की प्रतीक्षा में रहे। स्कन्दगुप्त की मृत्यु के पश्चात् वाकाटक नृपति पृथ्वीसेन (ई० सन् ४७० से ४८५) ने अपने वंश की खोई हुई राज्यलक्ष्मी को पुनः प्राप्त कर "कोशलमेकलमालवाधिपत्यभ्यचितशासनः" की उपाधि धारण की।' कुमारगुप्त और पुष्यमित्रों के बीच हुए उस भीषण गृहयुद्ध के कारण भारत की शक्ति क्षीण हुई। यदि यह गृहयुद्ध न हुआ होता तो हूणों को भारत पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं होता। २५ (३०) आर्य लोहित्य-वाचनाचार्य आर्य भतदिन के पश्चात आर्य लोहित्य वाचनाचार्य हए। नन्दीसूत्र की स्थविरावली में आपके श्रतज्ञान सम्बन्धी परिचय के अतिरिक्त आपका अन्यत्र भौर कोई परिचय उप्लब्ध नहीं होता। नन्दी स्थविरावली में प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण ने इन्हें सूत्रार्थ के सम्यक धारक और पदार्थो के नित्यानित्य स्वरूप का प्रतिपादन करने में प्रति कुशल बताया है। दिगम्बर परम्परा में भी आर्य लोहित्य से नाम साम्य रखने वाले लोहाचार्य अथवा लोहार्य नामक अष्टांगधारी प्राचार्य की प्रमुख प्राचार्यों में गणना की जाती है। २६ (३१) प्रार्य दूष्यगरणी-वाचनाचार्य आर्य लोहित्य के पश्चात् आर्य दूष्यगणी वाचनाचार्य हुए। युगप्रधान पट्टावली में इनका परिचय नहीं मिलता। नंदी सूत्र की स्थविरावली में इन्हें लोहित्य के पश्चात् वाचनाचार्य माना गया है। . प्राचार्य देवद्धिगणी समाश्रमण ने नंदी स्थविरावली में तीन गाथानों द्वारा जिन शब्दों से इनकी स्तुति की है, उससे स्पष्टतः प्रतीत होता है कि दूष्यगणी उम समय के विशिष्ट वाचनाचार्य थे और सैकड़ों अन्य गच्छों के ज्ञानार्थी श्रमण ' पृथ्वीषेण (द्वितीय) का बालघाट-ताम्रपत्र सुमुरिणयनिच्चानिच्च, सुमुरिणयसुतस्थषारयं वंदे। मसाल्यालवा, सत्यं लोहिच्चरणामाणं ।।४६॥ [नन्दी स्थविरावली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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