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________________ नामोल्लेख नहीं है। यदि युगप्रधान आचार्यों में गौतम की गणना की गई होती तो उनका नाम युगप्रधान पट्टावली में अवश्य होता। इससे यह प्रमाणित होता है कि उपरिलिखित रूप से प्रवचूरी में प्राचार्य धर्मघोष द्वारा जो गौतम का नामोल्लेख किया गया है, वह वीर निर्धारण के पश्चात् हुए प्रथम केवली के नाते उनके प्रति सम्मान प्रगट करने की दृष्टि से उस युग के महान पुरुष के रूप में किया गया है न कि युगप्रधानाचार्य के रूप में । प्रार्य सुधर्मा के प्रकरगा में - 'वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार', 'द्वादशांगी का परिचय', 'द्वादशांगी का हाम एवं विच्छेद' और द्वादशांगी विषयक दिगम्बर मान्यता' - इन उपशीर्षकों के अन्तर्गत पृष्ठ सं०६८ से १८६ तक लगभग ११८ पृष्ठों में द्वादशांगी विषयक सुविस्तृत एवं सर्वाङ्गपूर्ण परिचय दिया गया है। इस प्रकरण को सर्वसाधारण के लिए सुगम तथा शोधाथियों के लिए उपयोगी बनाने के लिए इस ग्रंथ के प्रधान सम्पादक श्री राठोड़ ने अलभ्य सामग्री उपलब्ध कग, एकादशांगी तथा द्वादशांगी से सम्बन्धित उपलब्ध विपुल साहित्य के गहन अध्ययन के माथ जो अनेक उपयोगी परामर्श दिये हैं, उन्हें कभी नहीं भूलाया जा सकता। __ इस प्रकरण में द्वादशांगी की रचना विषयक जो मान्यता-भेद इन दोनोंश्वेताम्बर और दिगम्बर - परम्परागों में पाया जाता है, उस पर भी, यथाशक्य विशद प्रकाश डाला गया है । श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों में एक मत से निर्विवादरूपेण यह उल्लेख उपलब्ध होता है कि भगवान महावीर के इन्द्रभूति गौतम प्रभृति ग्यारहों गणधर अपने अपने संदेह का प्रभू से समाधान पाकर एक ही दिन भगवान् के पास श्रमणधर्म में दीक्षित हुए। उसी दिन सर्वज्ञ प्रभू से त्रिपदी का ज्ञान और गणधर पद प्राप्त करने पर तत्काल उत्पन्न हुई गणधर-लब्धि के प्रभाव से उन सवने प्रभु की वाणी के आधार पर सर्व प्रथम चतुर्दश पूर्वो और तदनन्तर शेष दृष्टिवाद सहित एकादशांगी का पृथकतः ग्रथन-गुंफन कियां। तीर्थकर महावीर की वाणी के आधार पर उन ग्यारहों गगगधरों द्वारा स्वतन्त्ररूपेग अथित द्वादशांगी में अर्थतः ममानता रहते हुए भी वाचनाभेद रहा है। जैसा कि प्रालेख्यमान ग्रन्थमाला के प्रथम पुप्प - “जैन धर्म का मालिक इतिहास, प्रथम भाग" - में बताया जा चुका है, भगवान के ११ गणधरों में से सात के पृथकतः, प्रत्येक के एक गरण के हिसाब से मात गरण, प्राठवें तथा नौवें गणधर का सम्मिलित एक गण और दशवं एवं ग्यारहवें गणधर का सम्मिलित एक गण - इस प्रकार कुल : गण थे। गगाधरों की मम्या के अनुसार ग्यारह नहीं पर गरगों की दृष्टि से द्वादशांगी की ६ वाचनाएं मानी गई हैं। इन्द्रभूति गौतम एवं सुधर्मा को छोड़कर शेष ६ गणधर, भगवान महावीर की विद्यमानता में ही अपने अपने गण प्रार्य सुधर्मा को सम्हला, एक एक मास का ( ८३ ) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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