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________________ • ५३८ । जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य समित वेणा के तट पर पहुंचते ही कुलपति के साथ-साथ समस्त तापससमुदाय झिझका। उनके समक्ष प्रति विकट समस्या उपस्थित थी। एक अोर नदी में डूबने का डर था तो दूसरी ओर बड़ी कठिनाई से उपार्जित कीर्ति के मिट्टी में मिलने का भय । लेप का थोड़ा-बहुत प्रभाव तो अवश्य रहा होगा - यह विचार कर कुलपति वेणा के जल में उतरा। वेणा का प्रवाह तेज था और कुलपति के पैरों का लेप गरम पानी से पहले ही धुल चुका था। अतः तापसों का कुलपति वेणा के अगाध एव तीव्र प्रवाहपूर्ण जल में डूबने लगा। उसी क्षण प्रार्य समितसूरि वेणा-तट पर पहुंचे और तापसों के कुलपति को वेणा में डूबता हुआ देखकर बोले - "वेण्णे! हमें उस ओर जाने के लिए मार्ग चाहिये।" यह देख कर विशाल जनसमूह स्तब्ध रह गया कि तत्क्षण नदी का जल सिकुड़ गया और उस नदी के दोनों पाट पास-पास दृष्टिगोचर होने लगे। आर्य समित एक डग में ही वेणा के दूसरे तट पर पहुंच गये। आर्य समितसूरि की अनुपम प्रात्मशक्ति से सभी तापस और उपस्थित नर-नारी बड़े प्रभावित हुए। प्रार्य समित ने उन सबको धर्म का सच्चा स्वरूप समझाते हुए स्व-पर का कल्याण करने के लिए प्रेरित किया। आर्य समित के अन्तस्तलस्पर्शी उपदेश को सुनकर तापस कुलपति अपने ४६६ शिष्यों सहित निर्ग्रन्थ-श्रमण-धर्म में दीक्षित हो गये। वे ५०० श्रमण पहले ब्रह्मद्वीप आश्रम में रहते थे अतः श्रमण धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् उनकी शाखा "ब्रह्मद्वीपिका शाखा" के नाम से लोक में प्रसिद्ध हो गई।' - आर्य समित अपने समय के महान् प्रभावक प्राचार्य थे। उन्होंने आत्मकल्याण के साथ-साथ अनेक भव्यों को साधना-पथ पर आरूढ़ कर जिनशासन की अनुपम सेवाएं की। प्रार्य धनगिरि . प्रार्य सिंहगिरि के दूसरे प्रमुख शिष्य आर्य धनगिरि ने युवास्था में बिपुल वैभव और अपनी पतिपरायणा गुर्विरणी पत्नी के मोह को छोड़ कर जो उत्कट त्याग-वैराग्य का अनुपम उदाहरण रखा उस प्रकार का अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। आपका परिचय आर्य वज्र के परिचय के साथ दिया जा रहा है । मार्य महत्त पापका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। मायं मंगू के समय के प्रमुख राजवंश मार्य मंगू के वाचनाचार्यकाल में, वीर नि० सं० ४७० में तदनुसार ईसा से ५७ वर्ष पूर्व तथा शक संवत् से १३५ वर्ष पूर्व अवन्ती के राज्य-सिंहासन पर 'तेरपंचतावससया समियारियस्स समीवे पव्वतिता । ततो य बंभदीवा साहा संभुत्ता। [निशीथचूरिण, भा० ३, गा० ४२७२, पृ० ४२६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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