________________
गोपयुवक का दृष्टांत ]
श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी
प्रभव ने तत्काल उत्तर दिया- "कभी नहीं, स्वप्न में भी नहीं ।"
जम्बूकुमार ने कहा - " प्रतिबोध पाया हुमा प्रबुद्धचेता व्यक्ति ही सब प्रकार के अनाचारों से बच सकता है, न कि प्रज्ञाननिद्रा से विमूढ़ बना हुआ व्यक्ति । वस्तुतः ज्ञान द्वारा ही सब प्रकार के दुखों तथा दुष्कृत्यों से परित्राण हो सकता है ।"
इस बार प्रभव ने जम्बूकुमार को श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर अनुनयपूरण स्वर में कहा - "स्वामिन्! श्राप लोकधर्म के अनुरूप सभी कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए पुत्र उत्पन्न कीजिये । पुत्र उत्पन्न करने से पितृगण परम प्रसन्न होते हैं, क्योंकि पुत्र द्वारा किये गये तर्पण के माध्यम से उनका महान् उपकार होता है । विचक्षरण पुरुषों का यह कथन लोकविश्रुत है कि - पितृऋरण से उन्मुक्त (पुत्र उत्पन्न करने वाला) व्यक्ति मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग में निवास करता है। लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि प्रपुत्र की गति नहीं होती, उसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती । '
जम्बूकुमार ने प्रभव की युक्ति का उत्तर देते हुए कहा- "प्रभव ! तुमने पितृऋण से उन्मुक्त व्यक्ति के सम्बन्ध में स्वर्ग प्राप्ति की जो बात कही है, वह वस्तुतः सच नहीं है। मरने के पश्चात् अन्य भव में उत्पन्न पिता का उपकार करने की बुद्धि से किये गये अपने कार्य द्वारा पुत्र उसका कभी-कभी बड़ा अपकार भी कर डालता है, जबकि दूसरे भव में गये हुए पिता को पुत्र की श्रोर से वास्तव में किसी भी प्रकार की शान्ति नहीं मिलती। क्योंकि सभी प्राणियों को स्वयं द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मों का ही सुख एवं दुःख रूप फल प्राप्त होता है, न कि किसी दूसरे के द्वारा किये गये कर्म का । पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्र द्वारा उसकी तृप्ति प्रथवा शान्ति के लिये किये गये कार्य से मृत प्रारणी को तृप्ति प्रथवा शान्ति तो किसी भी दशा में नहीं मिल सकती । प्रत्यक्ष देखा जाता है कि एक ग्रामान्तर में रहे हुए मित्र की भी श्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाये गये भोजन से तृप्ति नहीं होती, तो फिर लोकान्तर में स्थित जीव की इस प्रकार के तर्पण से कैसे तृप्ति हो सकती है ? जलादि तर्पण से तृप्ति के विपरीत कभी कुंथू अथवा चींटी आदि जैसे छोटे-छोटे जन्तुनों के रूप में उत्पन्न हुए पिता को पुत्र द्वारा उनके तर्पण हेतु छींटे गये जल से मृत्यु आदि का कष्ट अवश्य हो सकता है ।
लोकधर्म की असंगति के सम्बन्ध में मै तुम्हें एक दृष्टान्त सुनाता हूँ, जो इस प्रकार है :
*
३०७
महेश्वरदत्त का प्राख्यान
"किसी समय ताम्रलिप्ति नामक नगर में महेश्वरदत्त नामक एक सार्थवाह रहता था । उसका पिता समुद्रदत्त अत्यन्त छल-छद्म एवं लोभपूर्ण प्रवृत्ति के
१ पुत्रस्य गतिर्नास्ति, स्वर्गो नैव च नैव च ।
तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, स्वर्ग गच्छन्ति मानवाः ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
[वैदिक साहित्य ]
www.jainelibrary.org