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________________ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि गुणस्थानों का मापदण्ड अान्तरिक भावना है न कि बाह्य लिंग। ज्ञाताधर्मकथांग के पांचवें सूत्र के पूर्व भाग में महाबल द्वारा स्त्री नामगोत्र-कर्म का उपार्जन कर लिये जाने के पश्चात इसके उत्तर भाग में बीस बोलों की उत्कृष्ट साधना से तीर्थकर नामगोत्र कर्म के उपार्जित किये जाते का स्पष्ट उल्लेख है। इससे स्पष्टतः यही सिद्ध होता है कि महाबल ने संयम ग्रहण करने के पश्चात् साधना की प्रारम्भिक अवधि में अभिमान-मायाजन्य आकांक्षा नामक सम्यक्त्व के दोष के प्रभाव से उदित मिथ्यात्व अथवा सास्वादन गुणस्थान में पहुंच कर पहले स्त्रीनामगोत्र-कर्म का उपार्जन किया और तदनन्तर साधनापथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होते हुए वीसों ही बोलों की उत्कट आराधना से तीर्थकरनाम गोत्र-कर्म का उपार्जन किया। ___ मूलपाठ में इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख होते हुए भी वृत्तिकार ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि महाबल ने पहले तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया और उसके पश्चात् स्त्रीनामकर्म का। वस्तुतः वृत्तिकार का यह अभिमत कम से कम महाबल के लिये किसी भी दशा में इन दो प्रवल कारणों से मान्य नहीं हो सकता । प्रथम कारण तो यह है कि वृत्तिकार का यह अभिमत शास्त्र के मूल पाठ से विपरीत है। शास्त्र का निर्विवादास्पद एवं स्पष्ट मूल पाठ सदा से सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता रहा है । दूसरा कारण यह है कि महाबल ने जिस साधना से तीर्थंकर नामगोत्र-कर्म का उपार्जन किया, वह अत्युत्कट साधना थी। शास्त्र में वरिंगत बीस बोलों में से किसी एक बोल की उत्कट आराधना से साधक तीर्थकर नामगोत्र-कर्म का उपार्जन कर लेता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान ऋषभदेव, और महावीर की तरह मल्लिनाथ ने भी अपने तीसरे पूर्वभव में उन सभी वीस बोलों की उत्कट साधना की थी जब कि शेष २१ तीर्थंकरों के जीवों ने एक दो, तीन अथवा अधिक बोलों की। ऐसी स्थिति में बीसों बोलों की उत्कट साधना करने के पश्चात् साधक महाबल का सम्यक्त्त्वाकांक्षा दोष से दूषित हो १ इमेहि यं णं बीसाएहि य कारणेहि मासेविय बहुलीकएहि तित्थयर नाम गोयं कम्म नियत्तिसु तं जहा - परहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तबस्सीसुं।..."आदि । [ज्ञाता धर्मकयांग, मूत्र ५ का उत्तर भाग २ जह मल्लिस्स महावलभवम्मि, तित्थयरनामबंधेऽवि । तव विसय-थोवमाया जाया, जुव इत्त हेउ त्ति ।। [जाताधर्मकथांगवृत्ति] ३ (क) पुरिमेण पच्छिमेण य, एए सव्वे वि फासिया ठाणा । मज्झिमगेहि जिरोहिं, एगं दो तिणि सवे वा ।। [संग्रहीत गाथा] (ब) ग्रासेविय बहुलीकएहि प्रत्येक स्थानस्य सकृत् करणादासेवितानि बहुशः सेवनाद् बहुलीकृतानि त लब्बोत्कृष्टरसायनपरिणाम: तीर्थकरनामगोत्रं कर्म उपाजितवान् । इससे सिद्ध होता है कि महाबल ने बीसों बोलों की आराधना की। ( २५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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