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________________ ४५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [सु० द्वारा स० को प्रति. थे।" तदनन्तर राजा सम्प्रति पांच अणुव्रतधारी, त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी और श्रमणसंघ की उन्नति करने वाला महान् प्रभावक हो गया।' निशीथ चूणि में उपरोक्त घटना के विदिशा नगरी में घटित होने का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि विदिशा में जीवित स्वामी की रथयात्रा में प्रार्य सुहस्तीस्वामी को देख कर राजा सम्प्रति को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वह तत्काल महलों से नीचे आया और प्राचार्य सुहस्ती के चरणों में गिर कर उसने प्रश्न किया - "भगवन् ! क्या आप मुझे जानते हैं ?" प्राचार्य सुहस्ती ने कुछ क्षण के लिये ज्ञानोपयोग लगा कर सोचने के पश्चात् कहा - "हां ! मैं तुम्हें जानता हं, तुम मेरे पूर्व भव के शिष्य हो।" तदनन्तर आर्य सुहस्ती ने सम्प्रति को उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया। सम्प्रति ने श्रावकधर्म स्वीकार किया और आर्य सुहस्ती एवं राजा सम्प्रति में परस्पर घनिष्ट धर्मस्नेह हो गया। इसी संदर्भ में आगे विदिशा के स्थान पर उज्जयिनी में आर्य सुहस्ती के साथ सम्प्रति के मिलन का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि वह प्राचार्य सुहस्ती का उपदेश सुन कर प्रवचन का भक्त और परम श्रावक बन गया.' सम्प्रति का पूर्वभव राजा सम्प्रति के प्रश्न के उत्तर में उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाते हुए आर्य सुहस्ती ने कहा- "राजन् ! तुम्हारे इस जन्म से पूर्व की बात है, एकदा विचरण करते हुए मैं अपने श्रमणशिष्यों सहित कोशाम्बी नामक नगर में पहुंचा। उस समय वहां दुष्काल का प्रकोप चल रहा था अतः सामान्य लोगों को अन्न का दर्शन तक दुर्लभ हो गया था। श्रमणों के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा एवं भक्ति के कारण इतो य प्रज्जसुहत्थी उज्जेरिण वंदनो आगमो रहारगुज्जाणे य हिंडतो राउलंगणपदेसे रना मालोयणगतेण दिट्ठो, ताहे रन्नो ईहापोहं करेंतस्स जाइसरणं जातं तह तेरण मणुस्सा भरिणता पडिचरह पायरिए कहिं ठितत्ति तेहिं पडिचरिउं कहितं सिरिघरे ठिता । ताहे तत्य गंतु धम्मो णेण सुनो, पुच्छितं धम्मस्स किं फलं ? 'भणितं अव्यक्तस्य तु सामाइंयस्स राजाति फलं, सो संमंतो होति, सच्चं भणसि अहं भे कहिं दिट्टेल्लमो प्रायरियेहि उवउन्जितं दिठेलो त्ति ताहे सो सावो जाग्रो पंचाणुवयधारी तसजीवपडिक्कमग्रो पभावप्रो समणसंघस्स ।" [कल्पचूणि] ' मण्ण्या पायरिया पीतीदिसं (?) जियपडिम वंदियं गतामो। तत्य रहारगुज्जाणे रण्णो घरे रहोवरि अंचति । संपतिरण्णा प्रोलोयणगएण अज्जसुहत्यी दिठ्ठो । जातीसररर्ण जातं । [निशीथ चूरिण, भा॰ २, पृ० ३६२] । उज्जेणीए समोसरणे प्रणुजाणे रहपुरतो रायंगणे बहुसिस्स परिवारो पालोयण ठितेरण रणा मज सुहत्यी पालोइयो, तं दळूण जाति संभरिया ।...''ताहे सो पवयणभत्तो परम साबगो जातो। [निशीथचूरिण, भाग ४, पृ० १२६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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