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________________ ४५३ मौर्य सम्राट अशोक ] दशपूर्वधर काल : श्रार्य महागिरि-सुहस्ती गई है । उस सम्बन्ध में पहले विस्तार के साथ प्रकाश डाला जा चुका है और मौर्यकालीन अभिलेखों एवं सिकन्दरकालीन लेखकों के अभिलेखों के आधार पर पाश्चात्य लेखकों के ग्रन्थों के उद्धरण दे कर प्रमाणपुरस्सर यह सिद्ध कर दिया गया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीर नि० सं० २१५ में नन्द वंश के प्रभुत्व को समाप्त कर पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। उन सब तथ्यों को यहां पुनः दोहराने की आवश्यकता नहीं । से पुराणों एवं अन्य ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यकाल २४ वर्ष बताया. गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि नन्द को युद्ध में पराजित करने के दृढ़ निश्चय के साथ जब चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र पर प्रथम वार आक्रमण किया, उस समय कुछ वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त पंजाब के किसी छोटे मोटे राज्य का स्वामी प्रवश्य वन गया होगा । बिना किसी राज्य का अधिपति हुए चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र जैसे सशक्त साम्राज्य से युद्ध करने की किसी भी दशा में न क्षमता ही प्राप्त कर सकता था और न साहस ही कर सकता था । ऐसा प्रतीत होता है कि नन्द वंश का अन्त कर पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर आसीन होने से पूर्व का जो चन्द्रगुप्त का किसी छोटे-मोटे राज्य पर सत्ताकाल रहा उस काल को भी चन्द्रगुप्त के शासन काल में सम्मिलित कर गिना गया है । अशोक के पश्चात् उसका पौत्र सम्प्रति मगध साम्राज्य का अधिपति वना । सुहस्ती द्वारा सम्प्रति को प्रतिबोध कल्पचूरिंग में इस प्रकार का उल्लेख है कि प्रार्य सुहस्ती जीवित स्वामी को वंदन करने के लिये एक बार उज्जयिनी गए और रथ यात्रा के साथ चलते हुए वे राजप्रासाद के प्रांगन में पहुंचे । राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठे हुए राजा सम्प्रति ने जब उन्हें देखा तो उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उन्हें उसने कहीं न कहीं देखा है । ईहापोह करते हुए राजा सम्प्रति को जातिस्मरण ज्ञान हो गया । उसने अपने सेवकों को आचार्य सुहस्ती के सम्बन्ध में मालूम करने का आदेश दिया कि वे कहां ठहरे हुए हैं । अपने अनुचरों से आचार्यश्री के ठहरने के स्थान का पता चलने पर राजा सम्प्रति उनकी सेवा में पहुंचा और उपदेश श्रवण के पश्चात् उसने आचार्यश्री से प्रश्न किया- "भगवन् ! धर्म का फल क्या है ?" आचार्यश्री ने उत्तर दिया- "राजन् ! अव्यक्त सामायिक धर्म का फल राज्यपद प्राप्ति आदि है ।" " सत्य कहते हैं भगवन् ! " यह कहते हुए सम्प्रति ने प्रार्य मुहस्ती से प्रश्न किया- "महाराज ! क्या आप मुझे पहिचानते हैं ? ज्ञानोपयोग से सम्प्रति के पूर्वजन्म के वृत्तान्त को जान उत्तर दिया- "तुम मेरे परिचित हो। इससे पूर्व के अपने भव Jain Education International For Private & Personal Use Only कर प्राचार्यश्री ने मं तुम मेरे शिष्य www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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