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________________ प्रा० वृद्धवादी और सिद्धसेन] दशपूर्वधर-काल : प्रायं समुद्र ५२५ गोषों का यह निर्णय सुन कर सिद्धसेन ने अपनी पराजय स्वीकार की और कहा- "भगवन ! आप मुझे दीक्षित कर अपना शिष्य बना लें, क्योंकि सम्यों ने अापकी विजय घोषित की है।" प्राचार्य वृद्धवादी ने कहा - "सिद्धसेन ! भृगुपुर में चल कर राजसभा में हम दोनों का शास्त्रार्थ हो, गोपालमण्डल के समक्ष किये गये वाद का क्या महत्त्व है ?" पर सिद्धसेन अपने वचन पर दृढ़ रहे और बोले - “महाराज! आप कालज्ञ हैं। जो कालज्ञ होता है, वह सर्वज्ञ होता है अतः आप मके दीक्षित कीजिये। सिद्धसेन के दद-निश्चय को देखकर प्राचार्य वृद्धवादी ने उन्हें दीक्षित कर लिया और दीक्षा के पश्चात् उनका नाम कुमुदचन्द्र रखा। कालान्तर में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित दिये जाने के पश्चात् कुमुदचन्द्र की प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर के नाम से प्रसिद्धि हुई। अपने सुयोग्य शिष्य सिद्धसेन को प्राचार्य पद पर नियुक्त करने के पश्चात् वृद्धवादी अन्यत्र विचरण करने लगे और सिद्धसेन अवन्ती की ओर पधारे। अवन्ती के संघ ने प्राचार्य का बड़ा स्वागत किया और "सर्वज्ञ-पुत्र" आदि विरुद से उनकी जय बोलते हुए उन्हें नगरप्रवेश करवाया। संयोगवश उस समय महाराज विक्रमादित्य गजारूढ़ होकर सामने की ओर आ रहे थे। “सर्वज्ञपुत्र" का विरुद सुनते ही उन्होंने परीक्षा के लिये हाथी पर बैठे-बैठे ही मन से सिद्धसेन को नमस्कार किया। इस पर सिद्धसेन ने हाथ उठाकर विक्रमादित्य द्वारा किये गये मानसिक वन्दन का उत्तर दिया। राजा ने प्राचार्य से प्रश्न किया- "क्या आपका आशीर्वचन इतना सस्ता है कि वन्दन नहीं करने वाले व्यक्ति को बिना वन्दन किये ही वह दे दिया जाता है ?" उत्तर में प्राचार्य सिद्धसेन ने कहा - "राजन् ! तुमने तन से नं सही पर मन से वन्दन किया है।" इस पर प्रसन्न होकर महाराज विक्रमादित्य ने सर्वजन समक्ष हाथी से उतर कर उन्हें वन्दन किया और उनके चरणों पर कोटि मुद्राओं की भेंट समर्पित की।' धन-धान्य प्रादि परिग्रह के सम्पूर्ण त्यागी प्राचार्य ने विक्रमादित्य को समझाते हुए कहा - "राजन् ! कंचन-कामिनी को ग्रहण करना तो दूर, जैन मुनि इनका स्पर्श तक नहीं करते।" राजा ने भी यह सोचकर कि यह राशि मुनि के निमित्त की जा चुकी है, उसे पुनः स्वीकार नहीं किया और इस प्रकार उस राशि का जनहित के शुभ कार्यों में व्यय किया गया । . (क) धर्मलाभ इति प्रोक्त, दूरादुच्छितपाणये । सूरये सिद्धसेनाय, ददो कोटि नराधिपः ।। [प्रबन्धकोश, प्रबन्ध ६} (ख) तस्य दक्षतया तुष्ट: प्रीतिदाने ददो नृपः । कोटि हाटक टंकानां, लेखक पत्रकेऽलिखत् ।। [प्रभावक च., पृ. ५६, श्लो० ६३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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