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________________ ५२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा० वृ० पौर सिद्धसेन प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर की विद्वत्ता और उनके चमत्कारों के सम्बन्ध में बहुत सी जनश्रुतियां प्रसिद्ध हैं। उनमें से एक में कहा गया है कि चित्रकूट के मानस्तम्भ से सिद्धसेन ने मंत्र-विद्या का एक पत्र प्राप्त किया, जिसमें कि दो विद्याएं थीं। प्रथम-हेमसिद्धि विद्या से यथेप्सित स्वर्ण तैयार किया जा सकता था और दूसरी "सर्सप-विद्या" से सरसों की तरह अगणित सैनिक उत्पन्न किये जा सकते थे। उपरोक्त दोनों विद्याएं लेकर प्राचार्य सिद्धसेन कुरिपुर पहुंचे और वहां के राजा देवपाल को अपने विद्याबल से विजयवर्मा के साथ युद्ध में विजयी बनाया। कृतज्ञतावश राजा देवपाल सिद्धसेन का परम भक्त बन गया और उन्हें उच्चतम राजकीय सम्मान और 'दिवाकर' पद से सम्मानित कर प्रतिदिन वन्दन करने जाता। राजभक्ति से प्रभावित हो प्राचार्य सिद्धसेन भी पालकी में बैठकर राजा को दर्शन देने जाया करते। यह नियम है कि रागातिरेक से मानवमन सहज ही प्रभावित हो जाता है। प्राचार्य सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं रहे। राजा और पुरमान्य भक्तजनों की भक्ति से वे संयम-साधना में कुछ शिथिल हो गये। खा-पीकर आराम करने और सोने में उनका अधिकांश समय व्यतीत होने लगा। वे अपने श्रमण वर्ग को भी साधना की प्रेरणा नहीं दे पाते । प्रबन्धकोशकार ने लिखा है - "जहां गुरु निश्चित होकर सोये रहते हों, वहां शिष्यवर्ग पीछे क्यों रहेगा। उनके शिष्य भी खा-पीकर प्रायः दिन-रात सोये रहते हैं और इस प्रकार शयन की स्पर्धा में मुनियों द्वारा मोक्ष पीछे की ओर ठेल दिया जाता है।" . धर्मस्थान में शिथिलाचार के प्रवेश का चित्र खींचते हुए राजशेखरसूरि ने खेदपूर्वक कहा है : "सदोष जलपान, फूल, फल और गृहस्थ के सावध कर्मों का यतनारहित होकर वहां सेवन किया जाता था। अधिक क्या कहा जाय, वहां साधु वेष की विडम्बना हो रही थी।" वृद्धवादी ने जब सिद्धसेन की कीर्ति के साथ-साथ उपरोक्त शिथिलाचार के समाचार सुने, तो उन्हें खेद हुआ और वे सिद्धसेन को प्रतिबोध देने हेतु योग्य साधुनों को गच्छ की व्यवस्था सम्हला कर स्वयं एकाकी रूप से कूर्मारपुर की पोर चल पड़े। वहां पहुंच कर वे पालकी उठाने वालों में सम्मिलित हो गये और सिद्धसेन को पालकी में बिठा कर चलने लगे। 'सुमइ गुरु निच्चितो, सीसा वि सुवंति तस्स प्रणुकमतो। मोसाहिज्जइ मुक्खो, हुड्डाहुड्डं सुवंतेहिं ।। [प्रबन्धकोश, ६।१२] २ दगपाणं पुप्फफलं, प्रणेसरिणज्जं गिहत्थकज्जाई । प्रजया पडिसेवंति, जइवेसविडंबगा नवरं । [वही, १३] वर्तमान काल में भी शनैः-शनैः धर्मस्थानों में बिजली की रोशनी, पंखे तथा नल के पानी का उपयोग होने लगा है । मुनिराज गृहस्थों का कार्य बताकर इन कार्यों के लिए वस्तुत मौन स्वीकृति प्रदान कर रहे हैं । -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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