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________________ दशपूर्वर- काल : प्रायं समुद्र ५११ कालकाचार्य (द्वितीय) ] माता-पिता की अनुमति से कालक और सरस्वती ने गुणाकर मुनि के पास जैन श्रमण दीक्षा स्वीकार कर ली ।' आर्य कालक ने अल्प समय में ही गुरु के पास शास्त्राभ्यास कर वीर नि०सं० ४५३ में प्राचार्य पद प्राप्त किया । कालकाचार्य अपने समय के एक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् थे पर कहा जाता है कि उनके द्वारा दीक्षित शिष्य उनके पास अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाते थे । इसे अपने मुहूर्तज्ञान की त्रुटि समझ कर उन्होंने विशिष्ट मुहूर्तज्ञान के लिये प्राजीवकों के पास निमित्त ज्ञान का अध्ययन किया । 3 इस प्रकार प्राचार्य कालक जैनागमों के अतिरिक्त ज्योतिष और निमित्तविद्या के भी विशिष्ट ज्ञाता बन गये । किसी समय आर्य कालक अपने श्रमण संघ के साथ विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे। नगर के बाहर उद्यान में आर्य कालक के दर्शन के लिये अन्य श्रमणियों के साथ आई हुई साध्वी सरस्वती को राजा गर्दभिल्ल ने मार्ग में देखा । उसके अनुपम रूप लावण्य पर मुग्ध हो कर गर्दभिल्ल ने अपने राजपुरुषों द्वारा साध्वी सरस्वती का बलात् अपहरण करवा उसे अपने अन्तःपुर में पहुंचा दिया । गर्दभिल्ल के इस घोर अनाचारपूर्ण पाप का पता चलते ही आर्य कालक श्रौर उज्जयिनी के संघ ने गर्दभिल्ल को समझाने का यथाशक्य पूरा प्रयास किया किन्तु उस कामान्ध ने साध्वी सरस्वती को उन्हें नहीं लौटाया। इससे क्रुद्ध होकर प्राचार्य कालक ने गर्दभिल्ल को राज्यच्युत करने की प्रतिज्ञा की । भावी संकट से गर्दभिल्ल कहीं सतर्क न हो जाय, इस दृष्टि से दूरदर्शी प्राचार्य कालक कुछ दिनों तक विक्षिप्त की तरह उज्जयिनी के राजमार्गों एवं चौराहों पर - "गर्दभिल्ल राजा है तो क्या ? उसका अन्तःपुर रम्य है तो क्या ? मैं भिक्षार्थ इधर-उधर घूमता हूँ तो क्या, यदि मैं शून्य देवल में रहता हूँ तो क्या ?" इस प्रकार के अनर्गल प्रलाप करते हुए घूमते रहे । जब उन्होंने देखा कि गर्द भिल्ल को उनके विक्षिप्त होने का पूरा विश्वास हो गया है, तो वे उज्जयिनी से निकल पड़े । उस समय भरौंच में राजा बलमित्र और भानुमित्र नामक बन्धुद्वय का राज्य था, जो साध्वी सरस्वती और प्रार्य कालक के भागिनेय थे। आर्य कालक अच्छी तरह जानते थे कि गर्दभिल्लं जैसे शक्तिशाली राजा को पराजित करने के लिए .१ गुणाकरसूरि के पास श्रार्य कालक के दीक्षित होने का उल्लेख प्रथम कालकाचार्य आर्य श्याम की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि गुरणाकरसूरि का समय वीर नि० सं० २९१ से ३३५ तक रहा है । [सम्पादक ] * एवं वीर निर्वाण वर्ष ४५३ । प्रस्मिश्च वर्षे गर्दभिल्ल कोच्छेदकस्य श्री कालकाचार्यस्य सूरिपदप्रतिष्ठाभूत् । [विचारश्रेणी] • एसिउं पढिउं सो न नाम्रो मुहुत्तो जत्थ पब्वाविप्रो थिरो होज्जा । तेण निव्वेएण भाजीबगारण समासे निमित्तं पठियं । " [ पंचकल्पचूरिंग, पत्र २४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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