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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [प्रायं समुद्र वा० विशिष्ट ज्ञाता थे और श्रापका उपदेश सर्वप्रिय होने के साथ ही परम प्रभावकारी भी था । "त्रिसमुद्रख्यात कीति" इस विशेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रापका. विचरण सुदूरवर्ती प्रदेशों में भी रहा, अन्यथा सम्पूर्ण देश में आपकी इस प्रकार . की ख्याति नहीं हो पाती । ५१० संभवतः आर्य समुद्र तत्वज्ञान के अतिरिक्त मुख्य रूपेण भूगोल के विशेषज्ञ थे । आपके लिये देववाचक द्वारा प्रयुक्त "अक्खुब्भियसमुद्दगंभीर"" पद इस बात का द्योतक है कि विविध शास्त्रों के विशिष्ट ज्ञाता एवं प्रकाण्ड पण्डित होने पर भी आप में समुद्रवत् गाम्भीर्य का अद्भुत गुण विद्यमान था । प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आपका मन किंचित्मात्र भी क्षब्ध नहीं होता था । आपकी विद्वत्ता का दूसरा प्रबल प्रमाण यह भी है कि आर्य मंगु जैसे विविध विद्याओं के ज्ञाता मुनि आप ही के शिष्य थे । लगभग ४० वर्ष तक श्राचार्य पद पर विराजमान रह कर वीर-शासन की सेवा करने के पश्चात् प्रापने वीर नि० सं० ४५४ में स्वर्गारोहण किया । वृद्ध परम्परा के प्राधार पर ऐसा कहा जाता है कि अपनी आयु के अन्तिम वर्षो में आर्य समुद्र का जंघाबल क्षीण हो गया था और वे विहार करने में श्रसमर्थ हो गये थे । ऐसी स्थिति में संभव है कि कुछ काल के स्थिरवास में ही उनका प्राणोत्सर्ग हुआ हो । 1 आर्य समुद्र के प्राचार्यकाल के अन्तिम समय में आर्य कालकाचार्य नामक एक महान् प्रभावक आचार्य हुए। उनका परिचय यहां संक्षेप में दिया जा रहा है :कालकाचार्य (द्वितीय) प्रथम कालकाचार्य से लगभग एक शताब्दी पश्चात् वीर निर्वाण की पांचवीं शताब्दी में द्वितीय कालकाचार्य हुए। उत्तराध्ययन टीका, वृहत्कल्पभाष्य, निशीथचूरिंग आदि के आधार पर उनका परिचय यहां संक्षेप में दिया जा रहा है : धारावास के राजा वैरसिंह और रानी सुरसुन्दरी के पुत्र का नाम कालक और पुत्री का नाम सरस्वती था। राजकुमारी सरस्वती नाम के अनुसार रूप और गुणों में भी सरस्वती के समान थी । दोनों भाई-बहिन में इतना प्रगाढ़ स्नेह था कि वे दोनों प्रायः साथ-साथ ही रहा करते थे। किसी समय राजकुमार कालक अपनी बहिन सरस्वती के साथ अश्वारूढ़ हो घूमने निकला । नगर के बाहर एक उद्यान में उस समय एक जैन मुनि धर्मोपदेश दे रहे थे । कालक और सरस्वती ने भी उनका उपदेश सुना और उन्हें संसार से विरक्ति हो गई । " नंदीसूत्र स्थविरावली, गा० २६ २. जंघाबल परिक्षीणानामुदधिनाम्नामायं समुद्राणामपराक्रमं मरणमभूदिति वृद्धप्रसिद्धिः । [ आचारांग वृत्ति, १ श्रु०, ८ प्र०, १० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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