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________________ ५१६ चतुर्थी का पर्वाराधन] दशपूर्वघर-काल : मार्य समुद्र महोत्सव में सम्मिलित होना होगा। ऐसी स्थिति में यदि पंचमी के दिन पर्वाराधन किया गया तो मैं साधुवन्दन, धर्मश्रवण और समीचीनतया पर्वाराधन से वंचित रह जाऊंगा । अतः ६ के दिन पर्वाराधन किया जाय तो समुचित रहेगा।" प्राचार्य ने कहा - "पर्व-तिथि का अतिक्रमण तो नहीं हो सकता।" राजा सातवाहन ने कहा - "ऐसी दशा में एक दिन पहले चतुर्थी को पर्वाराधन कर लिया जाय तो क्या हानि है ?" अपनी सहमति प्रकट करते हुए कालकाचार्य ने कहा - "ठीक है, ऐसा हो सकता है।" इस प्रकार प्रभावक होने के कारण कालकाचार्य ने देश-काल मादि की परिस्थिति को देखते हुए भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी में पनोसवरण (पर्युषण पर्वाराधन) प्रारम्भ किया। कुछ पट्टावलीकारों ने वीर निवारण संवत् ६६३ में कालकाचार्य (चतुर्थ) द्वारा चतुर्थी का पयूषण पर्व प्रचलित किये जाने का उल्लेख किया है। उसी को दृष्टि में रखकर मेरुतुंग ने अपनी विचारश्रेणी में चतुर्थी पर्व के कर्ता कालकाचार्य को निर्वासित करने वाले बलमित्र भानुमित्र को वीर नि० सं० ४७० से ४७२ की अवधि के बीच विद्यमान बलमित्र-भानुमित्र से भिन्न और वीर नि० सं० ६६३ में विद्यमान होने का उल्लेख किया है। संभव है उनके सम्मुख निम्नलिखित गाथा रही हो : तेणउम्र नक्सएहि, समइकतेहि वद्धमारणामो। पज्जोसवण चउत्थी, कालगसूरीहिं तु ठविया ।। मूलतः यह गाथा किस ग्रंथ की है, इस बात का निर्णय भनेक अंगों के सम्यगवलोकन के पश्चात् भी अभी तक नहीं हो पाया है। ऐसी दशा में इसे प्रक्षिप्त गाथा ही कहा जा सकता है। कल्पसूत्र की संदेहविषौषधि नामक अपनी टीका में प्राचार्य जिनप्रभ ने इसे तित्योगालियपइन्ना की गाथा बेताया है। पर वहां इस गाथा का कहीं नाम-निशान तक नहीं है। कालकाचार्य कथा में इस गापा को- “उक्तं च प्रथमानुयोगसारोदारे" - लिखकर प्रथमानुयोगसारोबार की होना बताया है पर इस नाम का कोई भी ग्रंथ प्राज मस्तित्व में नहीं है। कालसप्ततिका में गाथांक ४१ के साथ यह गाथा उपलब्ध होती है, पर इस ग्रंथ की प्रवचूर्णी में इस गाथा के सम्बन्ध में एक शब्द तक नहीं लिखा गया है। इससे स्पष्ट रूप से यह प्रकट होता है कि वस्तुतः यह गाथा कालसप्ततिका की नहीं अपितु प्रक्षिप्त है। जैसा कि कल्पकिरणावली में कहा गया है :___"इति गाथाचतुष्टयं तीर्थोद्गाराद्युक्तसम्मतितया प्रदर्शितं तीर्थोद्गारे च न दृश्यते इत्यपि विचारणीयम् । यद्यपि 'तेणउपनवसएहि' इति गाथा कालसप्त• निशीषणि, उ० १०, भा० ३, पृ० १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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