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________________ १४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [६. नायाधम्मकहानो निर्वाण प्राप्त करने तक का पर्ण विवरण भी इसमें दिया गया है। मल्ली भगवती ने . गृहस्थ अवस्था में उस समय की प्रसिद्ध परिवाजिका चोखा को शुचिमूलधर्म की सदोषता बतलाते हुए विनयमूल धर्म की शिक्षा दी और कहा कि जिस प्रकार रक्तरंजित वस्त्र रक्त से धोने पर स्वच्छ नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार हिंसा आदि से मलीनात्मा यज्ञ-यागादि की हिंसा से शुद्ध नहीं किया जा सकता। इस अध्ययन में प्रसंगोपात्त दिया गया अरणक श्रावक और ६ राजाओं का परिचय भी द्रष्टव्य है। नौवें “माकन्दी अध्ययन" में बताया गया है कि वासना से चलचित्त होने वाला साधक जिनरक्षित के समान अपने प्राण गंवाता और स्थिरचित्त रहने वाला साधक मिनपालित की तरह सदा सुरक्षित रहकर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलकाम होता है । दशवें "चन्द्र अध्ययन" में कृष्ण और शुक्लपक्षीय चन्द्रमा की हानि-वृद्धि के उदाहरण से जीव के ज्ञानादि गुणों की हानि-वृद्धि समझाई गई है कि आत्मारूपी चन्द्र का ज्ञान रूपी उद्योत कर्मावरणों के कारण क्षीण और कर्मावरणों के क्षयोपशम से वृद्धिगत होता है। ___ ग्यारहवें "द्रावद्रव" नामक अध्ययन में जिनमार्ग की आराधना और विराधना पर विचार व्यक्त किये गए हैं। वन के वृक्षों की तरह साधक-श्रमण अन्य तीथिकों की संगति द्वारा पाराधना से विचलित होता है तथा सम्यगज्ञानियों के संसर्ग से साधनामार्ग में स्थिर होकर आराधक बनता है। ___ बारहवें “खातोदक अध्ययन" में श्रावक सुबुद्धि प्रधान द्वारा जितशत्रु राजा को पुद्गलों के परिवर्तनशील परिणामी स्वभाव को समझाने का उल्लेख किया गया है। मन्त्री ने खाई के गन्दे जल को शुद्धिकारक प्रयोगों द्वारा स्वच्छ, सुस्वादु और सुपेय बना कर यह प्रमाणित किया कि कोई भी वस्तु एकान्ततः शुभ अथवा अशुभ नहीं होती । संसार का प्रत्येक पदार्थ शुभ से अशुभ और अशुभ से शुभ रूप में परिवर्तित होता रहता है अतः एक पर राग और दूसरे पर द्वेष रखमा अज्ञान का सूचक है। तेरहवें "दर्दर अध्ययन" में राजगह नगर के श्रावक नन्द मणिकार का परिचय देते हुए बताया गया है कि सत्संग के अभाव में नन्द-मरिणकार व्रत-नियम करते हुए भी श्रद्धा से विचलित हो गया। उसने अष्टम तप के समय .प्यास से व्याकुल होने पर नगरी के बाहर पुष्करिणी बनवाने का निर्णय किया और चार शालाओं के साथ वापी का निर्माण करवा दिया । अन्त में वापी के प्रति अत्यधिक ममत्व और प्रार्तध्यान की दशा में मरकर नन्दन मणिकार ने उसी बावड़ी में दर्दुर के रूप में जन्म ग्रहण किया। एक बार भगवान् महावीर के राजगृह नगर में पदार्पण की बात सुनकर दर्दुर वन्दन हेतु निकला और मार्ग में एक घोड़े की टाप से घायल हो गया। गम्भीररूपेण घायल होने पर भी दर्दुर ने प्रभु चरणों में अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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