SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [उत्तरा के लिये वितन उपाध्याय ने काल के समान करवाल लिये अपने जजमान को सम्मुख देख कर सोचा कि अब सच्ची बात बताये बिना प्राणरक्षा असंभव है । यह विचार कर उसने कहा महत् भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म ही वास्तविक तत्व और सही धर्म है। इसका सही उपदेश यहां विराजित प्राचार्य प्रभव से तुम्हें प्राप्त करना चाहिये।" उपाध्याय के मुख से सच्ची बात सुन कर सय्यंभव बड़ा प्रसन्न हमा। उसने समस्त यज्ञोपकरण और यज्ञ के लिये एकत्रित पूरी की पूरी सामग्री उपाध्याय को प्रदान कर दी और स्वयं खोज करते हुए प्राचार्य प्रभव की सेवा में जा पहुंचा। सय्यंभव भट्ट ने प्राचार्य प्रभव के चरणों में प्रणाम करते हुए उनसे मोक्षदायक धर्म का उपदेश देने की प्रार्थना की। प्राचार्य प्रभव ने सम्यक्त्व सहित अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य पौर अपरिग्रह रूप धर्म की महिमा समझाते हुए सय्यंभव से कहा कि वस्तुतः यही वास्तविक तत्व, सही ज्ञान और सच्चा धर्म है । इस वीतराग मार्ग की साधना करने वाला जन्म, जरा, मरण के बन्धनों से सदा-सर्वदा के लिये छुटकारा पा कर अक्षय सुख की प्राप्ति कर लेने में सफल होता है। प्राचार्य प्रभव के मुख से शुद्ध मार्ग का उपदेश सुन कर सय्यंभव भट्ट ने तत्काल ही प्रभवस्वामी के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली। प्राचार्य प्रभव द्वारा सय्यंभव भट्ट को प्रतिबोध दिये जाने का यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि हमारे महान् प्राचार्य अपने प्रात्मकल्याण के साथ-साथ भविष्य में प्राने वाली भव्य प्राणियों की पीढ़ियों को कल्याण का मार्ग बताने वाली श्रमण परम्परा को सुदीर्घ काल तक स्थायी प्रोर सशक्त बनाने के लिये भी पहनिश प्रयत्नशील रहते थे। प्रार्य प्रभव का स्वर्गगमन डाकुओं के प्रधिनायक प्रभव ने ३० वर्ष की भरपूर युवावस्था में दीक्षित होकर ६४ वर्ष के सुदीर्घ काल तक प्रतिकठोर संयम का पालन किया और ११ वर्ष तक श्रमसंघ के गौरव-गरिमापूर्ण प्राचार्य पद पर अधिष्ठित रह कर ७५ वर्ष तक स्व प्रौर पर का कल्याण किया। इस प्रकार के उदाहरण संसार के इतिहास में विरले ही उपलब्ध होते हैं। अन्त में १०५ वर्ष की प्रायू में महान राजर्षि प्राचार्य प्रभव ने अपना अन्त समय सन्निकट समझ अपने शिष्य सय्यंभव को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और अनशनपूर्वक १०५ वर्ष की पायु पूर्ण कर वीर निर्वाण संवत् ७५ में स्वर्गगमन किया। दिगम्बर परम्परा की मान्यता दिगम्बर मान्यता के सभी ग्रन्थों मोर पट्टावलियों में भगवान महावीर के धर्मसंघ के प्राचार्यों की परम्परा में प्रार्य जम्बू के पश्चात् मार्य प्रभव के स्थान पर विष्णु को प्राचार्य माना गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy