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________________ द्वादशांगी में मंगलाचरण] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा १७१ आचारांग सूत्र के प्रादि, मध्य अथवा अन्त में इस प्रकार का कोई पृथक मंगलपाठ. नहीं दिया हुआ है। व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग को छोड़ कर द्वादशांगी के शेष किसी अंग में मंगलाचरण का न होना इस बात को प्रमाणित करता है कि व्यख्याप्रज्ञप्ति के आदि, मध्य तथा अन्त में उल्लिखित उपरोक्त १८ मंगलाचरण सूत्रकार द्वारा कृत नहीं अपितु किसी लिपिकार अथवा प्रतिलिपिकार द्वारा किये गए मंगलाचरण हैं। . २. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग के प्रारम्भ में दी हुई संग्रहगाथा' से स्पष्टतः यह प्रकट होता है कि इस अंग का प्रारम्भ राजगह शब्द से हुअा है, न कि मंगलाचरण से । यदि मंगलाचरण सूत्रकार द्वारा कृत और सूत्र का अभिन्न अंग होता तो संग्रह गाथा निश्चितरूपेण "मो प्ररहंताणं" इस पद से पहले उल्लिखित की जाती और उसमें 'रायगिह' शब्द के स्थान पर "रणमो" शब्द होता। ३. "मो बंभीए लिवीए" यह किसी भी दशा में सूत्रकार द्वारा किया हुआ मंगलाचरण नहीं हो सकता क्योंकि श्रुतरचना के समय गौतम-सुधर्मा आदि द्वादशांगी के सूत्रकारों ने न तो ब्राह्मी लिपि का ही उपयोग किया और न अन्य किसी लिपि का ही। ऐसी स्थिति में सूत्रकार आर्य सुधर्मा द्वारा ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किये जाने के इस प्रकार के उल्लेख का कोई औचित्य दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि द्रव्यश्रुत का भावश्रुत के समकक्ष महत्व स्थापित करने अयवा द्रव्यश्रुत के माध्यम से भावश्रुत की पूजा अर्चा आदि के विधान को लोक में प्रचलित करने की दृष्टि से 'रणमो बंभीए लिवीए' - इस पद को चैत्यवास के समय में अथवा अन्य किसी काल में जोड़ा गया हो। प्राचीन प्रतियों में 'रणमो बंभीए लिविए' इस प्रकार का पाठ उपलब्ध होता है पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस पद को द्रव्यश्रुत की पूजा का आधारभूत मान कर चर्चास्थल बनाया गया हो और उसके निराकरण हेतु "सुत्तागमे" के संपादक मुनि 'पुप्फभिक्खु' ने "रणमो बंभीयस्स लिवीयस्स"२ इस प्रकार का पाठ प्रस्तुत कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया हो कि यह वस्तुतः ब्राह्मी लिपि को नमस्कार नहीं लेकिन ब्राह्मी को लिपि-विज्ञान की शिक्षा देने वाले भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार किया गया है। परन्तु इस प्रकार की पाठपरिवर्तन की परम्परा चाहे वह किसी दृष्टि से प्रारम्भ की जाय उचित नहीं। जहां तक “गमो बंभीए लिवीए" - इस पद के यहां उल्लिखित किये जाने का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वीर नि० सं०६८० में, देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के तत्वावधान में, वल्लभी में हुई अन्तिम 'रायगिह चलण १ दुक्खे २ कंख परोसे य ३ पगइ ४ पुढवीमो ५। जायते ६ णेरइए ७ बाले ८ गुरुएय ६ चलणाग्रो १०।। २ सुत्तागमे, भाग १, पृ. २८४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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