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________________ वस्तुतः "रिणग्गंठ" शब्द का संस्कृत रूप है निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थ शब्द का अर्थ है अन्य रहित-ग्रन्थी रहित अर्थात् भवप्रपंच में बांधकर रखने वाली हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह आदि की गांठों से रहित । यह एक बड़ा महत्वपूर्ण और विचारणीय तथ्य है कि यदि "णिग्गंठ" (निर्ग्रन्थ) शब्द का अर्थ एकान्ततः नग्नता ही होता तो श्रमणियों के लिये "रिणग्गंठियो" शब्द का प्रयोग शास्त्रों में कदापि नहीं किया जाता। दशवकालिक सूत्र की जिन गाथाओं में मुनियों द्वारा वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपुंछनक के उपयोग में लाने का उल्लेख है, वे गाथाएं इस प्रकार हैं : जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा, धारंति परिहरंति य ॥२०॥ न सो परिग्गहो वुत्तो", नायपुत्तेण ताइणा । "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो", इइ वुत्तं महेसिरणा ॥२१॥' अर्थात् - संयम के निर्वहन हेतु अथवा लज्जानिवारणार्थ मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कंबल अथवा पादपुंछनक (प्रादि) धारण अथवा परित्यक्त करते हैं, उसे, भवसागर से भव्यों का कारण करने वाले ज्ञात पुत्र भगवान महावीर ने परिग्रह नहीं बताया है। वस्तुतः किसी वस्तु पर ममत्व भाव रखना परिग्रह है, ऐसा महर्षि (महावीर) ने कहा है। इन गाथानों पर तटस्थ दृष्टि से गहन चिन्तन करने पर स्पष्टतः यही सिद्ध होता है कि तीर्थ प्रवर्तन के समय से ही प्रभु महावीर ने श्रमणों के लिये मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण का रखना तो अनिवार्य रखा और अचीवरत्व तथा सचीवरत्व को ऐच्छिक रखा। आर्य सुधर्मा से देवद्धि तक के एक हजार वर्ष के इतिहास के सिंहावलोकन से भी यही तथ्य प्रकट होता है कि प्रार्य रक्षित के समय तक भगवान महावीर के धर्म संघ के श्रमण इन दोनों प्रकार के द्रव्य लिंगों में से ऐच्छिक रूपेण किसी एक का पालम्बन लेते रहे। इस द्रव्यलिंग के विभेद से न उनमें किसी प्रकार के गुरुत्व लघुत्व का भाव रहता था और न किसी प्रकार का मतभेद ही । अपने गुर और अन्य श्रमरणों की अनुपस्थिति में श्रमणों के संस्तारकों को पंक्तियों में रख एवं उन संस्तारकों में ही शिक्षार्थी श्रमणों की कल्पना कर बालक मुनि वज ने शास्र की वाचना दी- इस प्रकार के उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि मार्य वज की गुरु परम्परा के श्रमण वस्त्र पात्रादि रखते थे।।। दमकालिक सूत्र, प्रध्याय ६. २ अवकाशं च बाल्यस्य, ददच्चापलतस्तदा । सर्वषामुपपीमिग्राहं भूमौ निवेश्य च ॥ १११ ।। बामा प्रददौ बजः, श्रुतस्कन्धवजस्य सः । प्रत्येकं गुरुवक्त्रेण कषितस्य महोचमात् ।। ११२ ।। बजोऽपि तं गुरोनिं, श्रुत्वा सजाभयाकुसः । सभिवस्य पचास्मानं, वेष्टिकाः संमुखोऽभ्यगात् ॥ ११६ ।। (प्रभावक च० बज्रचरितम्, पृ०७) ( १०७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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