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________________ भद्रबाहु-दि० परं०] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु नित्य ही घोर बावीस परीषहों का सहन करना प्रादि ये तो बड़े ही कठोर प्राचरण हैं ।। ६२, ६३, ६४ ।। इस समय हम लोगों ने जो यह पाचरण ग्रहण कर रखा है, वह वस्तुतः इस लोक में सुखकर है अतः इसे इस दुःषम नामक पांचवें प्रारक में हम नहीं छोड़ सकते ।।६।। इस पर शान्त्याचार्य ने कहा कि इस प्रकार का चरित्रभ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं। यह तो जिनप्ररूपित धर्ममार्ग को दूषित करने वाला है ॥६६।। जिनेन्द्रप्रभु ने निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही परमोत्कृष्टं बताया है, उसका त्याग कर अन्य मार्ग की प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व है ।। ६७।। शान्त्याचार्य के इस कथन से रुष्ट हो कर उनके उस प्रधान शिष्य ने लम्बे डण्डे से गुरु के सिर पर प्रहार किया जिसके प्राघात से स्थविर प्राचार्य शान्ति का प्राणान्त हो गया और वे मर कर व्यन्तर जाति के देव हुए ॥६८॥ शान्त्याचार्य के मरने पर उनका वह प्रमुख शिष्य संघाधिपति वन बैठा और प्रकट में पाषंड-श्वेताम्बर हो गया। वह लोगों को इस प्रकार के धर्म का उपदेश देने लगा कि सग्रन्थ (वस्त्र-पात्रादि के परिग्रहधारक) को भी मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ॥६६॥ उसने (जिनचन्द्र ने) तथा उसके अनुयायियों ने स्वयं द्वारा ग्रहण किये गये पाषण्डों के अनुरूप शास्त्रों की रचना की और उन शास्त्रों का उपदेश दे कर लोगों में उस प्रकार के प्राचरण को प्रचलित कर दिया ॥७०॥ तं वयणं सोऊणं उत्तं सीमेण तत्य पढमेण । को सक्कइ पारेउं एवं पइ दुखरायरणं ॥६२।। उववासो य मलाभो अणे दुस्सहाइ अंतरायाई । एकट्ठाणमल मज्जायणं बम्भचेरं च ॥६३।। भूमीसयणं लोच्चे दे दे मासेहिं असहिरिणज्जो हु । बावीस परिसहाई मसहिणिज्जाई निन्ध पि ।।६४।। अंपुण संपइ गहियं एवं मम्हेहि किपि मायरणं। . इह लोय सुक्खयरणं ण चंडिमो हु दुस्समे काले ॥६५।। ता संतिणा पउत्तं चरियपभठेहिं जीवियं लोए । एवं ए हु सुन्दरयं दूसरणयं जहण मग्गस्स ।।६६।। णिग्गंधं पम्बयणं जिणवरगाहेण प्रक्खियं परमं । तं छडिऊरण . अण्णं पवत्तमारणेण मिश्यतं ॥७॥ ता रूसिऊण पहमो सीसे सीसेण दीह दरेण । पविरो पाएण मुमो जामो सो वितरो देवो ।।६।। इयरो संघाहिबइ पयडिय पासंर सेवरो बायो। मक्खइ लोए धम्म सग्गंयं प्रत्यि रिणवारणं ॥६६॥ सत्याइ विरइयाइं रिणय णिय पासंड गहियसरिसाई। वखारिणऊरण लोए पवत्तिमो तारिसायरणो ।।७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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