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________________ ६७० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चन्द्रगुप्त द्वितीय ज्योंही वह बिगुल बजाये, त्यों ही सब युवक बिजली की तरह शत्रुनों पर टूट पड़ें । बरकमारिस और उसके साथियों को सफलता मिली। रव्वल विजयी हुआ पर मन्त्री द्वारा बरकमारिस के प्रति सन्देह उत्पन्न करा दिये जाने के कारण वह पागल हो गया । वरकमारिस ने महल में पहुँच कर ख्वल को मार डाला । उसने राजसिंहासन पर बैठ कर स्वयंवर में प्राप्त उस रानी से विवाह कर लिया । बरकमारिस ने सम्पूर्ण भारत पर अधिकार किया और उसका यश दूरदूर तक फैल गया । "" ईसा से ५७ वर्ष पूर्व हुए विक्रम संवत् के प्रवर्तक वीर विक्रमादित्य के सम्बन्ध में बड़ी ही विचित्र अनेक लोक कथाएं शताब्दियों से केवल भारत ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में प्रचलित रही हैं। यह पहले बताया जा चुका है कि इस्लाम की उत्पत्ति से कतिपय शताब्दियों पूर्व वीर विक्रमादित्य से सम्बन्धित साहित्य अरब में बड़ा लोकप्रिय रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि अरबी लेखक द्वारा लिखा गया भारत के बरकमारिस का उपरोक्त कथानक, संवत्सर प्रवर्तक विक्रमादित्य के सम्बन्ध में प्रचलित हजारों लोक कथानकों में से किसी एक कथानक का विकृत स्वरूप है । अपने बड़े भाई भर्तृहरि द्वारा अपमानित किये जाने पर विक्रमादित्य के घर से एकाकी निकलने और अनेक वर्षों तक देशविदेशों में घूमने का उल्लेख 'विक्रमचरित्र' नामक ग्रन्थ में उपलब्ध होता है । 3 संजन से प्राप्त राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ( प्रथम ) के दानपत्र ( ताम्रपत्र ) में भी सुनी-सुनाई किवदन्ती के आधार पर लिखा है - "हमने सुना है कि गुप्तवंश के कलियुगी दानी एक राजा ने अपने भाई को मार कर उसके राज्य और उसकी स्त्री पर अधिकार कर लिया ।" इस प्रकार की सुनी-सुनाई, किंवदन्तियों और नाटकों पर आधारित बातों को इतिहास का रूप देना वस्तुतः इतिहास के साथ अन्याय करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता । इतिहास के लब्ध प्रतिष्ठ निष्पक्ष विद्वानों ने ऐतिहासिक तथ्यों के निर्णय में इस प्रकार के नाटकों को नितान्त अविश्वसनीय माना है । * उपरोक्त तथ्यों पर निष्पक्ष दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार करने, तथा गुप्त सम्राटों एवं वाकाटक राजमाता प्रभावती गुप्ता द्वारा अभिलेखों में दिये गये गुप्त राजाओं के वंशवृक्ष में रामगुप्त के नाम का उल्लेख तक न होने से यही निष्कर्ष निकलता है कि गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त के पश्चात् द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य १ अबुल हसन (१०२६ ई०) द्वारा अरबी ग्रन्थ का पारसी ग्रनुवाद। देखिये - 'Elliot and Dawson, History of India, I, 110-111.2 २ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृष्ठ ५४८-४९ प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ५४० As Sylvian Levi points out, these later historical dramas cannot be considered as trustworthy sources of the history they make for purposes of the drama. 'Mudrarakshasa' is not considered as a reliable source of Maurya history. 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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