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________________ के सम्बन्ध में भी कहीं मतैक्य नहीं मिलता। यही कारण है कि इस युग के दिगम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकारों द्वारा सम्मत गरणधरों के नाम, ग्राम यादि परिचय को अपने ग्रन्थों में स्थान देना प्रारम्भ कर दिया है । श्रुतकेवली काल की समाप्ति के पश्चात् एक नवीन तथ्य सामने आता है जो विद्वानों के लिये विचारणीय और गवेषकों के लिये गहन गवेषरणा का विषय प्रतीत होता है। तीर्थ प्रवर्तन के समय से लेकर प्रार्य सुस्थित एवं सुप्रतिबद्ध के आचार्य काल के प्रारम्भिक कुछ काल तक भगवान् महावीर का धर्म संघ निर्ग्रन्थ संघ के नाम से लोक में विश्रुत रहा। प्रार्य सुधर्मा के प्राचार्यकाल से प्रार्य भद्रबाहु ( श्रुतवली ) के प्राचार्य काल तक इसमें किसी गण विशेष का नाम कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । पर प्राचार्यं भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् कल्पस्थविरावली जैसी प्राचीन और प्रामाणिक पट्टावली में उनके प्रथम शिष्य गोदास के नाम से गोदास गरण के प्रचलित होने का उल्लेख उपलब्ध होता है । निर्ग्रन्थ संघ में गए की विद्यमानता का यह सबसे पहला उल्लेख होने के कारण वस्तुतः विचारणीय है । कल्पस्थविरावली में गोदासगरण की चार शाखाओं - तामलित्तिया, कोडिवरिसिया, पंडुवद्धरिया और दासी खव्वड़िया - का भी उल्लेख है जो संभवतः सुदूरस्थ बंग प्रदेश के ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष, पौण्ड्रवर्धन प्रादि स्थानों में धर्म का प्रचार-प्रसार करने के फलस्वरूप उन स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हुई प्रतीत होती हैं । यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या स्थविर गोदास के समय में श्रमण संघ इतना विशाल स्वरूप धारण कर गया था कि श्रमरणों के समीचीन अध्यापन, अनुशासन आदि की दृष्टि से गोदासगरण के नाम से पृथक् गरण स्थापित करने की आवश्यकता पड़ी अथवा स्थविर गोदास और उनके विशाल शिप्य समूह के निरन्तर प्रति दूर बंग प्रदेश में ही विचरण करते रहने के फलस्वरूप केवल पहिचान मात्र के लिये उनके साधु समूह की गोदासगरण के नाम से प्रसिद्धि हुई । बहुत सोच विचार के पश्चात् हमें तो गोदासगरण के उल्लेख के पीछे उपरि अनुमानित दो कारणों में से अंतिम कारण ही उचित प्रतीत होता है । ग्राशा है शोधप्रिय विद्वान् इस पर गवेषणा कर विशेष प्रकाश डालेंगे । इस उल्लेख से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि प्राचार्य भद्रबाहु के प्रमुख शिष्य गोदास ने अपने शिष्य समूह सहित दक्षिण में पहुँच कर वहां जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार किया । ३. दशपूवंधर- काल :- वीर निर्वारण सं० १७० से ५८४ तक के इस काल में आर्य स्थूलभद्र से लेकर आर्य वज्र तक ११ दशपूर्वधर ग्राचार्यों, प्रार्य सुहस्ती से प्रारम्भ हुई युग-प्रधान-परम्परा, आर्य बलिस्सह से प्रारम्भ हुई वाचकवंश परम्परा " देखिये हरिवंश पुराण, सर्ग ३, श्लोक ४१ से ४३, उत्तर पुराण, २ वीरोदय काव्य ( पं० हीरालालजी शास्त्री द्वारा संपादित ) Jain Education International ( १७ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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