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________________ ३३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रबंध चिन्ता ० के अनु० परित्याग करने और भद्रबाहु द्वारा १० नियुक्तियों की रचना करने का उल्लेख नहीं है, जबकि इसमें इन भद्रबाहु को चतुर्दश पूर्वधर बताया गया है । प्रबन्धकोश के अनुसार राजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश में भद्रबाहु और वराहमिहिर के प्रतिष्ठानपुर निवासी निर्धन, निराश्रित पर विद्वान् ब्राह्मण होने, यशोभद्रसूरि के उपदेश से विरक्त एवं दैन्य-दुःख से प्रवजित होने, भद्रबाहु के चतुर्दश पूर्वधर बनने एवं उनके द्वारा १० नियुक्तियों की रचना किये जाने का उल्लेख है । इसमें वराहमिहिर के रुष्ट हो प्रतिष्ठानपुर के राजा जितशत्रु का पौरोहित्य स्वीकार करने तक का सारा विवरण दोघट्टी वृत्ति में दिये गये विवरण से मिलता-जुलता है। इसमें विशेष बात यह बताई गई है कि राजपुरोहित का पद मिल जाने पर वराहमिहिर ने गर्वोन्मत्त हो श्वेताम्बरों की निन्दा और गर्दा करनी प्रारम्भ कर दी। वह प्रायः यही कहता कि ये बेचारे काक-तुल्य श्वेताम्बर कुछ नहीं जानते, केवल मक्खियों की तरह भिनभिनाते और मलीन वस्त्र धारण किये अपना जीवन नष्ट करते हैं। इससे क्रुद्ध हो श्रावकों ने भद्रबाहु से प्रतिष्ठानपुर प्राने की प्रार्थना की और उनके पधारने पर नगरप्रवेश का बड़ा भव्य महोत्सव किया। भद्रबाह के आगमन पर वह उनका कुछ भी अपकार नहीं कर सका। उन्हीं दिनों वराहमिहिर को पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र-जन्म की खुशी में उसने प्रसन्न हो अपार धनराशि व्यय की। नागरिकों ने उसे बधाइयां दीं। जितशत्रु राजा व राजसभा के समक्ष उसने अपने ज्योतिष के ज्ञान-बल पर भविष्यवारणी की कि उसका पुत्र शतायु होगा। वराहमिहिर ने एक दिन. राजसभा में कहा- “समस्त पौरजन पुत्रजन्म के उपलक्ष में मुझे बधाई देने आये पर भद्रबाहु मेरे सहोदर होते हुए भी मेरे यहां नहीं आये। श्रावकों ने प्राचार्य भद्रबाहु को इसकी सूचना दी और उनसे प्रार्थना की कि वे एक बार उसके घर पर अवश्य पधारें, व्यर्थ ही उसके क्रोध को न बढ़ावें। इस पर भद्रबाहु ने कहा कि दो बार कष्ट करने से क्या लाभ ? क्योंकि सातवीं रात्रि में बिल्ली के द्वारा इस बालक की मृत्यु हो जायगी। भद्रबाहु द्वारा कथित भावी अनिष्ट की सूचना पा, वराहमिहिर ने अपने पुत्र की सुरक्षा का बड़ा कड़ा प्रबन्ध किया पर सातवीं रात्रि में कपाट की अर्गला के गिर जाने से बालक की मृत्यु हो गई। पुत्र की मृत्यु के शोक से संतप्त वराहमिहिर को भद्रबाहु ने "शोकोपनोदो धर्माचार्यः' - इस उक्ति के अनुसार सान्त्वना देना आवश्यक समझा और वे उसके घर गये। वराहमिहिर ने उठकर भद्रबाहु के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए कहा- "प्राचार्यजी ! आपका ज्ञान और कथन सत्य सिद्ध हया पर बच्चे की मृत्यू आपके कथनानुसार बिल्ली से न होकर आगल से हई है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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