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________________ १२. दृष्टिवाद] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा दृष्टिवाद का तीसरा विभाग - पूर्वगत विभाग अन्य सब विभागों से अधिक विशाल और बड़ा महत्वपूर्ण माना गया है । इसके अन्तर्गत निम्नलिखित १४ पूर्व थे : १. उत्पादपूर्व - इसमें सब द्रव्य और पर्यायों के उत्पाद (उत्पत्ति) की प्ररूपणा की गई थी।' इसका पदपरिमारण १ कोटि पद माना गया है। २. अग्रायणीयपूर्व- इसमें सभी द्रव्य, पर्याय और जीवविशेष के अग्रपरिमाण का वर्णन किया गया था। इसका पद-परिमारण ६६ लाख पद माना गया है। ३. वीर्यप्रवाद - इसमें सकर्म एवं निष्कर्म जीव तथा अजीव के वीर्यशक्तिविशेष का वर्णन था । इसकी पद संख्या ७० लाख मानी गई है। ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व - इसमें वस्तुओं के अस्तित्व तथा नास्तित्व के वर्णन के साथ-साथ धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का अस्तित्व और खपुष्प आदि का नास्तित्व तथा प्रत्येक द्रव्य के स्वरूप से अस्तित्व एवं पररूप से नास्तित्व का प्रतिपादन किया गया था। इसका पदपरिमाण ६० लाख पद बताया गया है। ५. ज्ञानप्रवादपूर्व- इसमें मतिज्ञान आदि ५ ज्ञान तथा इनके भेद-प्रभेदों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था । इसकी पदसंख्या १ करोड़ मानी गई है । ६. सत्यप्रवादपूर्व - इसमें सत्यवचन अथवा संयम का, प्रतिपक्ष (असत्यों के स्वरूपों) के विवेचन के साथ-साथ, विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था। इसमें कुल १ करोड़ और ६ पद होने का उल्लेख मिलता है । ७. प्रात्मप्रवादपूर्व- इसमें प्रात्मा के स्वरूप, उसकी व्यापकता, ज्ञातृभाव तथा भोक्तापन सम्बन्धी विवेचन अनेक नयमतों की दृष्टि से किया गया था। इसमें २६ करोड़ पद माने गये हैं। .. ८. कर्मप्रवादपूर्व- इसमें ज्ञानावरणीय प्रादि पाठ कों का, उनकी प्रकृतियों, स्थितियों, शक्तियों एवं परिमारणों प्रादि का बन्ध के भेद-प्रभेद सहित विस्तारपूर्वक वर्णन था। इस पूर्व की पदसंख्या १ करोड ८० हजार पद बताई गई है। ९. प्रत्याख्यान-प्रवादपूर्व- इसमें प्रत्याख्यान का, इसके भेद-प्रभेदों के साथ विस्तार सहित वर्णन किया गया था। इसके अतिरिक्त इस नौवें पूर्व में प्राचारसम्बन्धी नियम भी निर्धारित किये गए थे। इसमें ८४ लाख पद थे। १०. विद्यानुप्रवादपूर्व - इसमें अनेक अतिशय शक्तिसम्पन्न विद्यामों एवं उपविद्यानों का उनकी साधना करने की विधि के साथ निरूपण किया गया था, जिनमें अंगुष्ठ-प्रश्नादि ७०० लघु विद्यामों, रोहिणी आदि ५००. महाविद्यामों ' पढम उप्पायपुव्वं, तत्य सम्वदम्वाणं पज्जवाण य उप्पायभावमंगीकाउं पण्णवणा कया। [नन्दी पूणि]] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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