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________________ ३७६. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [एक महत्वपूर्ण तथ्य (प्रथम) के काल से प्रचलित रही हों और उनमें से कतिपय गाथानों का संकलन कर उन्हें नियुक्तिकार नैमित्तिक भद्रबाहु ने अपनी नियुक्तियों में स्थान दिया हो। तत्कालीन उत्कट चारित्रनिष्ठा अंतिम श्रतकेवली प्राचार्य भद्रबाह के समय के प्रात्मार्थी श्रमणवर्ग के मानस में किस प्रकार की उत्कृष्ट कोटि की चारित्रनिष्ठा थी, इसकी कल्पना भद्रबाहु के चार शिष्यों के निम्नलिखित उदाहरण से की जा सकती है : प्राचार्य भद्रबाहु विविध क्षेत्रों में अनेक भव्य - प्राणियों का उद्धार करते हुए एक समय राजगृह नगर पधारे । अनन्तकाल से मोह की प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए प्राणियों को जगाकर उनके अन्तर में प्रात्मोद्धार की उत्कट अभिलाषा जागृत कर देने वाले भद्रबाहु के उपदेश को सुनकर अनेक व्यक्ति अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हुए। बाल्यकाल से ही साथ-साथ रहने वाले चार सम्पन्न श्रेष्ठी भद्रबाहु के उपदेश से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन चारों ने अपनी अपार धनसम्पत्ति का तत्काल परित्याग कर भद्रबाहु के पास श्रमण - दीक्षा ग्रहण कर ली। उन चारों ने कठोर तपश्चरण के साथ-साथ शास्त्रों का अध्ययन किया। वे चारों ही श्रमरण बड़े शान्त, दान्त, निरीह, वैराग्य रंग में पूर्णरूपेण रंजित, मित, मधुर एवं सत्यभाषी, विनीत और सेवाभावी थे। प्राचार्य भद्रबाहु से प्राज्ञा प्राप्त कर वे चारों श्रमण एकलविहारी प्रतिमापारी बन गये। अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुए कालान्तर में वे चारों एकलविहारी श्रमरण पुनः राजगृह नगर के वैभार पर्वत पर प्राये । उस समय शीतकाल की प्रति शीत लहरों के कारण राजगृह में अंग-प्रत्यंग को ठिठुरा देने वाली ठंड पड़ रही थी। दिन के तीसरे प्रहर में वे चारों एकलविहारी श्रमण राजगह नगर में भिक्षार्थ पाये । भिक्षा ग्रहण कर उनके लौटते-लौटते चतुर्थ प्रहर पा उपस्थित हुमा । एक साधु पर्वत की गुफा के द्वार पर, दूसरा उद्यान में, तीसरा उद्यान के बाहर और चौथा नगर के बहिमार्ग में ही पहुंच पाया था कि चतुर्थ प्रहर का समय हो गया। "साधु तृतीय प्रहर में ही भिक्षाटन एवं गमनागमनादि करे" - इस श्रमण - नियम के सच्चे परिपालक वे चारों साधु जहां थे वहीं ध्यानमग्न हो गये । रात्रि की निस्तब्धता के साथ-साथ प्रारणहारी शीत की भीषणता भी बढ़ती गई । भीषण शीत लहर के कारण उन चारों मुनियों के अंग-प्रत्यंग पूर्णरूतेण ठिठुर गये । उनकी धमनियों में खून ठंड के मारे बरफ की तरह जमने लगा। किन्तु इस प्रकार की असह्य मारणान्तिक वेदना से भी वे चारों मुनि किंचित्मात्र भी विचलित हुए । वे अत्यंत उज्वल परिणामों के साथ शुभध्यान में मग्न रहे । पर्वत के ऊपर गुफा के पास अत्यधिक ठंड थी अतः गुफा के द्वार पर ध्यानस्थ मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में ही काल कर स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न हुए । उद्यान में पर्वत की अपेक्षा कम ठंड थी अतः उद्यान में ध्यानस्थ मुनि रात्रि के द्वितीय प्रहर में, उद्यान के बाहर ध्यान मग्न मुनि रात्रि के तृतीय प्रहर में और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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