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________________ १३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [५. वियाह-पण्णति के ६-६ उद्देशक के हिसाब से इस तेतीसवें शतक के कुल १२४ उद्दे शक हैं । प्रथम एकेन्द्रिय शतक के प्रथम उद्देशक में एकेन्द्रिय के पृथ्वी, आप, तेज वायु और वनस्पति ये पांच भेद और उनके उपभेद बताते हुए उनके कर्मप्रकृतियों के बन्धन एवं वेदन का और शेष १० उद्दे शकों में क्रमशः अनन्तरोपपत्र एकेन्द्रिय, परम्परोपपन्न एकेन्द्रिय अनन्तरावगाढ़ पंचकाय, परम्परावगाढ़ पंचकाय, अनन्तराहारक पंचकाय, परम्पराहारक पंचकाय, अनन्तर पर्याप्त पंचकाय, परम्पर पर्याप्त पंचकाय, चरम पंचकाय और प्रचरम पंचकाय आदि के सम्बन्ध में सूक्ष्म विवेचन किया गया है। द्वितीय एकेन्द्रिय शतक ( श्रवान्तरशतक) में कृष्णलेश्यी, तृतीय में नील लेश्यी चौथे में कापोतलेश्यी, पांचवें में भवसिद्धिक, छठे में कृष्णलेश्यायुक्त भवसिद्धिक एकेन्द्रिय, सातवें में नील लेश्या के साथ, आठवें में कापोतलेश्या के साथ, नौवें में प्रभवसिद्धिक एकेन्द्रिय, दशवें में कृष्णलेश्यी, ग्यारहवें में नीललेश्यी और बारहवें में कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय प्रभव्य का विवेचन किया गया है । ३४ वें शतक में १२ अवान्तरशतक और प्रथम आठ अवान्तर शतकों के ११-११ उद्देशक और अन्तिम चार प्रवान्तरशतकों के ६-६ उद्देशक के हिसाब से इस ३४ वें शतक में कुल १२४ उद्देशक हैं । प्रथम एकेन्द्रिय शतक समुच्चय में अनन्तरोपपन्न से प्रचरम तक ११ उद्देशक हैं । दूसरे में कृष्णलेश्यी, तीसरे में नीललेश्यी, चौथे में कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय, पांचवें में भवसिद्धिक एकेन्द्रिय, छठे में कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक, सातवें में नीललेश्यायुक्त मन, आठवें में कापोत लेश्यायुक्त मन का विवेचन है । इन आठों अवान्तरशतकों के ग्यारह - ग्यारह उद्देशक हैं । नौवें अवान्तर शतक में प्रभवसिद्धिक एकेन्द्रिय, दशवं प्रवान्तरशतक में कृष्णलेश्यी, ग्यारहवें में नीललेश्या, वारहवें में कापोतलेश्यायुक्त प्रभवसिद्धिक का वर्णन है । इन चारों प्रवान्तर शतकों के प्रत्येक के ६-६ उद्देशक हैं । ३५ वें शतक में भी प्रथम एकेन्द्रिय महायुग्म शतक से लेकर द्वितीय, तृतीय यावत् द्वादश एकेन्द्रिय महायुग्म शतक तक बारह प्रवान्तरशतक हैं । इनमें पहले अवान्तरशतकों में ग्यारह ग्यारह उद्देशक और अन्त के ४ अवान्तरशतकों के - उद्देशक हैं। इस प्रकार इस ३५ वें शतक के कुल मिलाकर १२४ उद्देशक हैं । के प्रथम एकेन्द्रिय महायुग्म शतक (अवान्तरशतक) के पहले उद्देशक में महायुग्म के १६ भेद, उनके हेतु, कृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रिय का उपपात, एक समय के उपपात, जीवों की संख्या, कृतयुग्म - कृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रियों के आठ कर्मों के बन्ध-वेदन, साता असाता वेदन, इनकी लेश्याएं शरीर के वर्ण - अनु'वन्धकाल, सर्व जीवों के इस राशि में उत्पाद प्रादि २० स्थानों का निरूपण किया गया है । द्वितीय उद्देशक में प्रथम संमयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों के उत्पाद श्रौर अनुबन्ध का निरूपण, तृतीय उद्दे शक में प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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