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________________ २१०० द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा १७७ रूप से तो आबद्ध नहीं कर पाये । तदनन्तर आर्य सुधर्मा से प्रार्य जम्बू ने, जम्बू से आर्य प्रभव ने और आगे चल कर क्रमशः एक के पश्चात् दूसरे प्राचार्यों ने अपनेअपने गुरू से जो द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त किया उसमें एक स्थान से दूसरे स्थान में आते-आते द्वादशांगी के अर्थ के कितनी बड़ी मात्रा में पर्याय निकल गए, छूट गए अथवा विलीन हो गए, इसकी कल्पना करना भी कठिन है। आर्य भद्रबाह के पश्चात् (वी०नि० सं० १७०) अन्तिम चार पूर्व अर्थतः और आर्य स्थूलभद्र के पश्चात् (वी०नि० सं० २१५) शब्दतः विलुप्त हो गए। द्वादशांगी के किस-किस अंश का किन-किन आचार्यों के समय में हास हुआ यह यथास्थान बताने का प्रयास किया जायगा। आर्य सुधर्मा से प्राप्त द्वादशांगी में से आज हमारे पास कितना अंश अवशिष्ट रह गया, यहां केवल यही बताने के लिए एक तालिका दी जा रही है, जो इस प्रकार है :अंग का नाम मूल पद संख्या उपलब्ध पाठ (श्लोक प्रमाण) प्राचारांग १८,००० २५०० महापरिज्ञा नामक ७ वां अध्ययन विलुप्त हो चुका है। सूत्रकृतांग ३६,००० स्थानांग ७२,००० ३७७० समवायांग १,४४,००० १६६७ व्यख्याप्रज्ञप्ति २,८८,००० (नंदीसूत्र) १५७५२ ८४,००० (समवायांग) १०१ शतकों में से प्राज ४१ शतक ही उपलब्ध हैं। ज्ञातृधर्मकथा समवायांग और नन्दी ५५०० के अनुसार संख्येय इस अंग के अनेक कथानक हजार पद और इन वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। दोनों अंगो की वृत्ति के अनुसार ५,७६,००० उपासकदशा संख्यात हजार पद ८१२ सम० एवं नंदी के अनुसार पर दोनों सूत्रों की वृत्ति के अनुसार ११,५२,००० १ दो लक्खा अठासीइं पयसहस्साई पयग्गेणं...." [नंदी, पृ० ४५८, राय धनपतिसिंह] २ चउरासीइपयसहस्साई पयग्गेणं पण्णता...... [समवायांग, पृ० १७६ (प्र), राय धनपतिसिंह] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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