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________________ ३८७ मंत्री-पुत्रियों को स्मरण शक्ति] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र शकटार से बदला लेने का निश्चय किया। बहुत सोच-विचार के पश्चात् उसने एक उपाय खोज निकाला। रहस्यपूर्ण चमत्कार कार्यसिद्धि हेतु समुचित प्रबन्ध करने के पश्चात् वररुचि ने अपने शिष्यों के माध्यम से पाटलिपुत्र के निवासियों में इस प्रकार का प्रचार करवाया कि अमुक तिथि को प्रातः सूर्योदय के समय वररुचि स्वनिर्मित काव्यपाठ से गंगा को प्रसन्न करेगा और गंगा स्वयं अपने हाथ से उसे १०८ स्वर्णमुद्राएं प्रदान करेगी। निश्चित तिथि को सूर्योदय से पूर्व ही अपार जनसमूह गंगा के तट पर उपस्थित हो गया। वररुचि गंगा में स्नान करने के पश्चात् उच्चस्वर में गंगा की स्तुति करने लगा । स्तुतिपाठ को समाप्ति के साथ ही प्राची में अरुण अंशुमालि उदित हए। सहस्रों नरनारियों ने देखा कि सहसा गंगा के प्रवाह में से एक नारी का हाथ उठा और गंगा के जानूदन जल में खड़े वररुचि के हाथ में एक थैली रख कर पुनः गंगा के वारिप्रवाह में विलीन हो गया । थैली खोल कर सबके समक्ष स्वर्णमुद्राएं गिनी गईं तो वे पूरी १०८ निकलीं । सहस्रों कंठों से उद्घोषित गंगामैया और वररुचि के जयघोषों से गगन गूंज उठा। विद्युत्वेग से यह संवाद सर्वत्र फैल गया कि राजा ने वररुचि को स्वर्णमुद्राएं देना बन्द कर दिया तो क्या हुआ, उसे तो स्वयं गंगामाता प्रसन्न हो कर स्वर्णमुद्राएं देती है । ___ इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिये प्रतिदिन प्रातःकाल गंगानदी के तट पर लोगों का जमघट लगा रहता । प्रतिदिन सबके समक्ष एक हाथ गंगधारा से बाहर निकलता और वररुचि के हाथ में १०८ स्वर्णमद्रामों से भरी थैली रख कर पुनः जलप्रवाह में तिरोहित हो जाता। कुछ ही दिनों में वररुचि का यश दूर-दूर तक व्याप्त हो गया। एक दिन राजा नन्द ने शकटार से कहा- "महामात्य! हम कई दिनों से यह सुन रहे हैं कि गंगा स्वयं अपने हाथ से वररुचि को प्रतिदिन १०८ स्वर्णमुद्राएं प्रदान करती है।" __ शकटार ने कहा- “नरनाथ ! सुन तो मैं भी यही रहा हूं, अच्छा हो कल गंगातट पर चल कर प्रत्यक्ष यह चमत्कार देख लिया जाय।" दूसरे दिन प्रातःकाल महाराज नन्द और महामन्त्री शकटार के गंगातट पर जाने की बात पाटलीपुत्र के प्रत्येक नागरिक के पास पहुंच गई। महामात्य शकटार ने अपने गुप्तचर विभाग के एक अत्यन्त चतुर चरकार्यप्रवीण अधिकारी को वास्तविकता का पता लगाने का आदेश दिया। सूर्यास्त से पहले ही गुप्तचर विभाग का वह अधिकारी गंगातट के घने एवं ऊंचे सरकंडों की प्रोट में छुप कर बैठ गया। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य हो चुकने के पश्चात् उसने देखा कि एक व्यक्ति दबे पांवों गंगातट की ओर बढ़ रहा है । अधिकारी ने सावधान हो बड़े ध्यान ने उस व्यक्ति की ओर देखा । शरीर की ऊंचाई एवं आकार-प्रकार से उसने तत्काल पहचान लिया कि वह वररुचि ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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