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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग रही और तीर्थंकरों के ३४ अतिशयों एवं प्रष्ट महाप्रातिहार्यों से यह मर्त्यलोक स्वर्गलोक से भी अतिशय सुन्दर, कमनीय, रमरणीय और सुखद बना रहा। वह असंख्य वर्षों का काल इस भारतवर्ष का उत्कृष्ट स्वरिणमकाल था। पर भरत खण्ड के इस वर्तमान अवसर्पिणीकाल के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात भारतवर्ष तीर्थंकरों के इन ३४ अतिशयों, वाणी के ३५ गुणों और उनके अष्ट महाप्रातिहार्यों की उस अनिर्वचनीय अलौकिक शोभा से शून्य हो गया।
उस स्वर्णिमकाल का प्राद्योपान्त संक्षिप्त विवरण 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' नामक प्रालेख्यमान ग्रन्यमाला के प्रथम भाग में प्रस्तुत किया जा चुका है। अब भगवान् महावीर के निर्वाणकाल से लेकर एक पूर्वधर आचार्यों के काल तक का ऐतिहासिक विवरण इस द्वितीय भाग में प्रस्तुत किया जा रहा है।
' देखिये "जैन धर्म का मौलिक इतिहास", प्रथम भाग, पृ० ३३, टि. २ Jain Education International
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