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________________ चन्द्रगुप्त प्रथम] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य नागार्जुन ६५७ प्रचलित किये गये गुप्त संवत्, नेपाल के लिच्छवी राजा जयदेव (प्रथम) के साथ चन्द्रगुप्त (प्रथम) के घनिष्ठ सम्बन्ध, वल्लभी संवत् तथा शक संवत् प्रादि के सन्दर्भ में गहन विचार करने के पश्चात् यह सिद्ध किया है कि ई० सन् ३१६ से ३२० में चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने महाराजाधिराज का विरुद धारण कर गुप्त सम्वत् चलाया। ऐगी स्थिति में सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 'महाराजाधिराज' की पदवी धारण करने से पहले चन्द्रगुप्त को राजा बनने के पश्चात् महाराजाधिराज का पद धारण करने के लिये मगध के अड़ोस-पड़ोस के राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में कम से कम चार-पांच वर्ष का समय तो अवश्य ही लगा होगा। एक राजा सिंहासन पर आसीन होते ही तत्काल महाराजाधिराज का विरुद धारण करने योग्य विशाल भूभाग को कुछ ही मास में अपने अधिकार में कर ले - यह संभव प्रतीत नहीं होता। इन तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त के राज्यासीन होने का समय ई० सन् .३१६-२० से कुछ वर्ष पूर्व अनुमानित करना ही युक्तिसंगत होगा। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह के पश्चात् चन्द्रगुप्त प्रथम लिच्छवियों की सहायता से महाराजाधिराज बना । चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने अभिलेखों में गुप्तपुत्र के स्थान पर अपने आपको 'लिच्छवी दौहित्र' लिखा है। इतिहासमों ने समुद्रगुप्त के राज्यसिंहासनासीन होने का समय ई० सन् ३३५ अनुमानित किया है। स्मृतिग्रन्थों में २५ वर्ष की वय राजा बनने के योग्य वय मानी गयी है। ऐसी स्थिति में अनुमान किया जा सकता है कि सन् ३०८ के आसपास चन्द्रगुप्त प्रथम का लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ पारिणग्रहण और ई० सन् ३१० । के लगभग कुमारदेवी की कुक्षि से समुद्रगुप्त का जन्म हुआ होगा। इन सब घटनाओं पर विचार करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि ई० सन् ३१० से ३१५ के मध्य- वर्ती किसी समय में चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्याभिषेक हुप्रा अथवा उसने युवराज काल में ही अपने पिता के राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया होगा। भगवान महावीर की विद्यमानता में मगध के आसपास लिच्छवियों के शक्तिशाली गणतन्त्रों के उल्लेख मिलते हैं। नेपाल के लिच्छवी राजा जयदेव द्वितीय के अभिलेख में भी उल्लेख किया गया है कि उसके पूर्वज सुपुष्प का जन्म (ईसा की पहली शताब्दी में) पाटलिपुत्र में हुआ था। ऐमा प्रतीत होता है कि कुषारणों के साम्राज्य विस्तार के परिणामस्वरूप लिच्छवियों की शक्ति क्षीण हो गई और इनका कोई छोटा-मोटा राज्य ही प्रवशिष्ट रह गया हो। लिच्छवी क्षत्रियों की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह के पश्चात् चन्द्रगुप्त प्रथम ने राज्य विस्तार किया - इस ऐतिहासिक तथ्य से यह अनुमान किया जाता है कि मगध और मगध के अड़ोस-पड़ोस में चन्द्रगुप्त प्रथम के समय में भी लिच्छवी क्षत्रियों की धनी ग्राबादी रही होगी। [सम्पादक] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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