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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग १. आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्ध द्वादशांगी के रचनाकाल में गणधरों द्वारा सर्वप्रथम ग्रथित किये गये थे। अागम में जो पाचारांग की पदसंख्या १८,००० उल्लिखित है वह वस्तुतः दोनों श्रु तस्कन्धों सहित सम्पूर्ण आचारांग की है न कि केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध की। २. द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पंचचूलात्मक एवं आगमों के रचनाकाल से ‘पश्चाद्वर्ती काल में स्थविरकृत पाचाराग्र मात्र होने तथा प्रथम श्रुतस्कन्ध को ही मूल प्राचारांग मानते हुए केवल उसी की पदसंख्या १८,००० होने की जो मान्यता नियुक्तिकार आदि द्वारा अभिव्यक्त की गई है वह आगमिक एवं अन्य किसी आधार पर आधारित न होने के कारण निराधार, काल्पनिक एवं अमान्य है। ३. वर्तमानकाल में आचारांग के द्वितीय श्र तस्कन्ध के स्वरूप के सम्बन्ध में जो यह मान्यता प्रायः सर्वत्र प्रचलित है कि संपूर्ण द्वितीय श्र तस्कन्ध चार चूलाओं में विभक्त है, यह मान्यता किसी शास्त्र द्वारा सम्मत न होने के कारण शास्त्रीय मान्यता की कोटि में नहीं आती। यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि आचारांग की मूलतः अभिन्न अंग के रूप में एक भी चूला न तो कभी थी और न है ही। आगमों के रचनाकाल से लेकर निशीथ के छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने तक नवम पूर्व की तृतीय वस्तु का प्राचार नामक बीसवां प्राभृत संभवतः आचारांग की चूलिका के रूप में माना जाता रहा और कालान्तर में उस प्राभूत की निशीथ छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापना के पश्चात् निशीथ को आचारांग की चूलिका माना जाने लगा। इतना होने पर भी न कभी प्राचारप्राभृत की पद-संख्या प्राचारांग की पदसंख्या के सम्मिलित मानी गई थी और न निशीथ की ही। प्राचारांग का स्थान एवं महत्व प्राचार जीवन को समन्नत बनाने का साधन, साधना का मूलाधार और मोक्ष का सोपान है अतः आचारांग का जैन वाङ्मय में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" - इस सर्वजनसुविदित सुविख्यात सूक्ति के अनुसार सर्वप्रथम सदसद् का ज्ञान तथा तदन्तर उस ज्ञान के माध्यम से विवेकपूर्वक असद् अर्थात् हेय का परित्याग एवं सद् अर्थात् उपादेय का विवेकपूर्वक आचरण करने पर ही साधक द्वारा मोक्ष की उपलब्धि की जा सकती है। प्राचारांग में मोक्षप्राप्ति के बाधक असद् का एवं मोक्ष-प्राप्ति में परम सहायक सद् का ज्ञान कराते हए समस्त हेय के परित्याग का और उपादेय के आचरण का उपदेश दिया गया है। इस दृष्टि से आचारांग के सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने के कारण ही समवायांग और नन्दी सूत्र में द्वादशांगी का परिचय देते हए इसे द्वादशांगी के क्रम में सर्वप्रथम स्थान पर रखा गया है।' ' से णं अंगठ्ठाए पढ़मे अंगे। [समवायांग एवं नन्दीसूत्र] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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