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________________ प्राचार्य अपने शिष्य वर्ग में से योग्य शिष्यों को अनेक प्रकार से परीक्षाएं लेकर मन ही मन सर्वतः सर्वाधिक सुयोग्य शिष्य को अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुन कर उसे स्वाजित समस्त ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते और अन्त में अपनी प्रायु-समाप्ति से पूर्व ही समस्त संघ के समक्ष उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया करते थे। जहाँ इस प्रकार के उत्तराधिकारी नियुक्त करने जैसे प्रात्यन्तिक महत्व के प्रश्न पर श्रमणवर्ग एवं संघ में मतवभिन्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती वहाँ पर प्राचार्य किस प्रकार अपने श्रमरण समूह और संघ का पूर्णतः परितोष और समाधान करते थे, इसका एक बड़ा सुन्दर उदाहरण श्वेताम्बर परम्परा के वाङ्मय में उपलब्ध होता है। घटना वीर नि० सं० ५६७ की है । अनुयोगों के पृथककर्ता महान आचार्य रक्षित अपने अनेक शिष्यों के साथ दशपुर नगर के बाहर अपने दीक्षास्थल इक्षुग्रह में ठहरे हुए थे। चातुर्मासावाधि में अपनी आयु का अन्तिम समय समीप समझ कर अपने शिष्य-समूह एवं संघ के समक्ष अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। आर्य रक्षित अपने अनेक सुयोग्य शिष्यों में से केवल दुर्बलिका पुष्यमित्र को ही अपने उत्तराधिकारी प्राचार्य पद के लिये योग्य समझते थे पर उनके शिष्य समूह में से कतिपय मुनि और संघ के कुछ प्रमुख व्यक्ति फल्गुरक्षित को तथा कुछ मुनि और संघ के प्रमुख व्यक्ति गोष्ठामाहिल को प्राचार्य पद का उत्तराधिकारी बनाये जाने के पक्ष में थे। उत्तराधिकारी की नियुक्ति के प्रश्न पर अपने शिष्यसमूह और संघ में मतभेद देखकर भी आर्य रक्षित संघहित को सर्वोपरि समझ अपने महान् पावन उत्तरदायित्व के निर्वहन में कृतसंकल्प रहे। प्रश्न वस्तुतः वड़ा जटिल था। आर्य फल्गुरक्षित बड़े ही प्रतिभाशाली विद्वान् श्रमण और प्राचार्य रक्षित के छोटे सहोदर थे। उन्होंने किशोरावस्था में अपने ज्येष्ठ भ्राता रक्षित के केवल एक इंगित मात्र पर श्रामण्य अंगीकार कर संसार के समक्ष महान् त्याग और भ्रातृस्नेह का अपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया था। बहमत फल्गुरक्षित के पक्ष में था। गोष्ठामाहिल भी बड़े तार्किक और विद्वान मुनि थे। उत्तराधिकार के इस प्रश्न के उपस्थित होने से कुछ समय पूर्व ही संघ की प्रार्थना पर उन्होंने आर्य रक्षित का आदेश पा मथुरा में दुर्दान्त प्रक्रियावादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर धर्म को महती प्रभावना करने के साथ साथ बड़ा यश अजित किया । अतः गोप्ठामाहिल का पक्ष भी पर्याप्त रूपेण सबल था। परन्तु आचार्य रक्षित अपने सहोदर फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल की अपेक्षा दुर्बलिकापुष्यमित्र को प्राचार्य पद पर नियुक्त किये जाने की दशा में संघ का सर्वतोमुखो विकास, हित और उज्जवल भविष्य देख रहे थे। अपने सम्मुख उपस्थित समस्या का वे इस प्रकार का हल निकालना चाहते थे, जिससे संघ के भावी उत्कर्ष एवं उज्ज्वल भविष्य में किचित्मात्र भी कोर-कसर न रहे और सभी पक्षों का पूर्ण संतोषप्रद समाधान हो जाय । प्राचार्य रक्षित ने बड़ी ही सूझ-बूझ से काम किया। उन्होंने उपस्थिन शिष्य समूह और ( ४५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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