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________________ वा. का ह्रास एवं विच्छेद] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा १७९ ___ "भगवान्, महावीर के आठवें पट्टधर (प्रार्य स्थूल भद्र) के समय में १४ पूर्वो में से अन्तिम ४ पूर्व प्रणष्ट हो गए। उनके समय में अनवष्टप तप और पारंचित तप ये दोनों तप भी नष्ट हो गए क्योंकि चतुर्दश पूर्वधरों के काल तक ही ये दोनों तप विद्यमान रहते हैं। शेष सब (तप) तीर्थ की अवस्थिति तक विद्यमान रहते हैं।' सकडाल कुल के यश को बढ़ाने वाले धीरवर आर्य स्थूलभद्र प्रथम दशपूर्वधर और श्रेष्ठ श्रमणगुणों के धारक सत्यमित्र नामक श्रमण अन्तिम दशपूर्वधर होंगे। वीर-निर्वाण से १००० वर्ष पश्चात् उत्तरबलिस्सह के वाचकवंश में हुए वृषभतुल्य प्राचार्य (देवद्धि क्षमाश्रमण) के स्वर्गगमन के साथ ही पूर्वो का ज्ञान विच्छिन्न हो जाएगा। वीर-निर्वाण संवत् १२५० में दिन्नगरिण-पुष्यमित्र के स्वर्गगमन के साथ 'वियाहपण्णत्ति' का विच्छेद हो जायगा। श्रामण्य के परिपालन में निपूण वीरवर श्रमण पुष्यमित्र 'वियाह पण्णत्ति' के धारकों में अन्तिम होंगे। गुणों से प्रोत-प्रोत ८४ हजार पदों से सुशोभित 'वियाहपण्णत्ति' रूपी वृक्ष के विच्छिन्न हो जाने पर लोग गुण रूपी फल से वंचित हो जायेंगे।' इगवीस सहस्साइं, वासाणं वीरमोक्खगमणाम्रो । अणुमोगदार-नंदी, मयोच्छिन्नार जा तित्यं ॥५३॥ [विजयदानसूरि द्वारा अपने अन्य विविध प्रश्नोत्तर' में तीर्थोद्गाली के नाम से उद्धृत] ये ३ गाथाएं हमारे पास उपलब्ध तित्योगालीपइन्ना में नहीं हैं। [सम्पादक] ' एतेण कारणेण उ, पुरिसजुगे भट्ठमंमि वीरस्स । सयराहेण परगट्ठाई, जाण चत्तारि पुबाई ॥७९८॥ प्रणवठ्ठपो य तवो, तव पारंची य दोवि वोच्छिन्ना । चाउदस पुष्वधरंमि, घरंति सेसा उ जा तित्यं ॥७६६॥ तित्योगाली पइन्ना २ पढमो दस पुव्वीरणं, सकाल कुलस्स जसकरो धीरो। नामेण थूलभद्दो, . प्रविहि साधम्ममहोत्ति ।।८०१॥ नामेण सच्चमित्तो, समणो समरणगुणनिउरणविंचतिम्रो । होही अपच्छिमो किर, दसपुवीधारमो वीरो ॥८०२॥ [तित्योगालीपइष्णा] 3 बोलीणम्मि सहस्से, वरिसाण वीरमोक्खगमणामो। उत्तरवायगवसभे, पुष्वगयस्स भवे छेदो ॥८०५॥ [वही] " पण्णासा वरिसेहिं य बारसवरिससएहिं वोच्छेदो। दिण्णगणिपूसमित्ते, सविवाहाणं खलं मारणं ।।८०७॥ नामेण पूसमित्तो, समणो समणगुणनिउरगचित्तो। होही अपच्छिमो किर, विवाहसुयधारको वीरो ।।८०८।। संनि य विवाहरुक्खे, चुलसीति पयसहस्सगुणकिलियो। सहसंघिय संमंतो होही गुणनिप्फलो लोगो ॥८०६॥ [वही] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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