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________________ श्यामाचार्य दशपूर्वघर-काल : प्रार्य श्यामाचार्य में विचारश्रेणी में एक उल्लेख मिलता है - "एक समय महाविदेह क्षेत्र में सीमंधरस्वामी निगोद की व्याख्या फरमा रहे थे। उसे सुनने के पश्चात् मौधर्मेन्द्र ने सीमंधर प्रभु से प्रश्न किया - "भवगन् ! क्या भरतक्षेत्र में भी इस प्रकार निगोद का वर्णन करने वाला कोई श्रुतधर प्राचार्य आज विद्यमान है ?" __उत्तर में भगवान् ने फरमाया - "हां, भरतक्षेत्र में प्रार्य श्यामाचार्य द्रव्यानयोग के विशिष्ट ज्ञाता हैं। वे तबल से निगोद का भी यथार्थ स्वम् बता सकते हैं।" सौधर्मेन्द्र को यह सुन कर तीव्र उत्कण्ठा हुई और वह भन्तक्षेत्र में श्यामाचार्य को वन्दन करने पहुंचा। उसने प्राचार्यश्री से निगोद का स्वरूप पूछा और उनके मुख से यथार्थ स्वरूप सुनकर सौधर्मेन्द्र बड़ा प्रसन्न हुया । ग्राचार्य को वन्दन करने के पश्चात् लौटते समय सौधर्मेन्द्र ने आर्य श्याम के णियों को अपने प्रागमन से अवगत कराने के लिए चिन्हस्वरूप उपाश्रय का द्वार दूमरी दिशा की ओर मोड़ दिया।' यही श्यामाचार्य पन्नवरणा सूत्र के रचयिता भी हैं। यह सूत्र अाज भी ३६ पदों अर्थात् प्रकरणों में विद्यमान है। जीवाजोवादि समस्त पदार्थों के प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से इस शास्त्र को तत्वज्ञान का अनुपम भण्डार कहा जा सकता है। जैनदर्शन के गहन तत्वज्ञान को समझने में इस सूत्र का अध्ययन बड़ा सहायक माना गया है। प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण के पश्चात् दो वन्दनपरक गाथानों द्वारा प्रार्य श्याम को वन्दन किया गया है। टीकाकार द्वारा इन्हें अन्यकर्वक बताया गया है। वस्तुतः ये हैं भी अन्यकर्तक ही। उन गाथाओं में श्यामाचार्य की स्तुति करते हुए कहा गया है – “वाचकवंश के २३ वें धीरपुरुष, जो दुर्धर पूर्वश्रुत को धारण करने वाले हैं तथा जिन्होंने शिष्यगरण के हितार्थ अथाह श्रुतसागर से उद्धरण कर उत्तम श्रुतरत्न प्रदान किया है, उन प्रार्य श्यामाचार्य को प्रणाम हो।"२ आर्य श्याम को कालकाचार्य (प्रथम) के नाम से भी अभिहित किया जाता है। ऐतिहासिक घटनामों के पर्यवेक्षण से यह स्पष्टतः प्रकट होता है. कि पृथक-पृयक समय में कालकाचार्य नाम वाले ४ प्राचार्य हुए हैं। शेष तीनों कालकाचार्यों का परिचय यथास्थान आगे दिया जायगा। ' सिरिवीरजिरिणदानो वरिससया तिन्नि बीस (३२०) पहियायो। कालयसूरी जामो, सक्को पडियोहिरो जेण ।। [विचारश्रेणिपरिशिष्टम्] २ वायगवरवंसामो, तेवीसइमेण धीरपुरिसेरणं । दुदरघरेण मुरिणरणा, पुश्वसुयसमिदबुद्धीरणं ।।३।। सुयसागरा विणेऊरण, जेणं सुयरयरणमुत्तमं दिन्नं । सीसगणस्स भगवरो, तस्स नमो प्रज्ज सामस्स ॥४॥ [पत्रवणा, (रायनपतसिंह) पत्र ४ (१)] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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