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________________ २-सूक्षकृतांग] केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा दिये गये हैं, जिनका श्वेताम्बर परम्परा को आवश्यक वृत्ति में दिये गए नामों से नगण्य अन्तर को छोड़ पूर्ण साम्य है। प्रथम श्रुतस्कन्ध - इसके १६ अध्ययनों में से प्रथम "समय" अध्ययन में पर-समय का परिचय देकर उसका निरसन किया गया है। यहां परिग्रह को बन्ध और हिंसा को वैरद्धि का कारण बताकर कुछ परवादियों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। उनमें भूतवाद, आत्माद्वैतवाद, एकात्मवाद, देहात्मवाद, अकारकवाद (सांख्य), अात्म षष्टवाद, पंच स्कन्धवाद, क्रियावाद, कर्तृत्ववाद और राशिक आदि का परिचय देकर उन वादों का निरसन किया गया है। दूसरे अध्ययन में पारिवारिक मोह से निवृत्ति, परीषहजय, कषायजय, आदि का उपदेश, सूर्यास्त के पश्चात् विहार का निषेध और काम-मोह से निवृत्त होने का उपदेश दिया गया है। तीसरे उपसर्ग अध्ययन में अनुकूल, प्रतिकूल परीषह सहन का उपदेश देते हए अनकूल परीषह से प्रतिकूल परीषह की अपेक्षा अधिक हानि बताई गई है। साथ ही इसमें उस समय की विभिन्न मान्यताओं का परिचय देते हुए कहा गया है कि कुछ लोग जहाँ जल से, कुछ लोग पाहार ग्रहण करने से, कुछ आहार ग्रहण न करने से मुक्ति मानते हैं, वहां आसिल, द्वीपायन आदि ऋषि पानी पीने और वनस्पति भक्षण से सिद्धि मानते हैं। इस अध्ययन के अन्त में ग्लान-सेवा और उपसर्ग-सहन का उपदेश दिया गया है। "स्त्री परिज्ञा" नामक चतुर्थ अध्ययन में स्त्री सम्बन्धी परीषहों को सहने का उपदेश दिया गया है। पांचवे नरकविभक्ति नामक अध्ययन के दो उद्देशकों में यह बताते हुए कि भोगों से नरक गति होती है-नरक के दुःखों का वर्णन किया गया है। छटे “वीरस्तुति" नामक अध्ययन में भगवान् महावीर के गुणानुवाद और उपमाओं का वर्णन किया गया है। सातवें "कुशील" नामक अध्ययन में बताया गया है कि जो हिंसक जिस जीव-काय की हिंसा करता है, वह उसी जीवनिकाय में उत्पन्न होकर वेदना भोगता है। यहां उपसर्गसहन एवं रागद्वेष की निवृत्ति से कर्मक्षय और मोक्ष का लाभ बताया गया है। ... आठवें, वीर्य अध्ययन में बाल और पंडित वीर्य के भेद से मनुष्य की शक्ति के उपयोग की दृष्टि से २ प्रकार बतलाये गये हैं। इन्हें कर्मवीर्य और अकर्मवीर्य भी कहा गया है। नौवें-"धर्म" अध्ययन में धर्म का स्वरूप बतलाते हुए बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह का त्याग तथा हिंसा, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और कषाय को कर्मबन्ध का कारण बतलाकर इनके त्याग एवं अनाचारवर्जन का उपदेश भी दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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