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________________ पट्ट-प्रदान किसके द्वारा) केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा भगवान् द्वारा इन्द्रभूति गौतम को तीर्थ की अनुज्ञा और - "गणं च सुहम्म सामिस्स घुरे ठावेत्ता णं अणुजाणति" इन शब्दों के साथ प्रार्य सुधर्मा को गण की अनुमा प्रदान किये जाने का स्पष्टतः उल्लेख किया है । उस समय भगवान महावीर न तो एकाकी इन्द्रभ्रति गौतम को तोर्थ तथा गण की सम्मिलित रूप से अनुज्ञा प्रदान की पोर न एकाकी प्रार्य सुवर्मा को ही। इस गाथा में - "मज्झिमाए वीरेण सुहम्मो तित्याहिवो संठवियो" - ये शब्द विद्यमान हैं । इन शब्दों का सीधा सा स्पष्ट अर्थ यही है कि भगवान महावीर ने मध्यम पावा में सुधर्मा को तीर्थाधिप-तीर्थनायक (जिसमें गणाधिनायकत्व सम्मिलित होना स्वत: ही सिद्ध है) नियुक्त किया। इस प्रकार उपरिलिखित गाथा में प्रयुक्त शब्दावली के सम्यक् पर्यालोचन से गाथा का यही अर्थ-संगत प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर ने अपने निर्वाण के समय मज्झिमा (मध्यम पावा) में आर्य सुधर्मा को तीर्थाधिप अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ के नायक पद पर अपना प्रथम पट्टधर नियुक्त किया। "वीरवंश पदावली- अपर. नाम विधिपक्ष गच्छ पट्रावली" की निम्नलिखित गाथा में तो इस प्रकार का और भी स्पष्ट उल्लेख है कि स्वयं भगवान् महावीर ने आर्य सुधर्मा को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया: भवियजणे पडिबोहिय, बावत्तरि पालिऊण वरिसाइं। सोहम्म गणहरस्स य, पट्ट दाउं सिवं पत्तो ।।६।। अर्थात्-भव्य जीवों को प्रतिबोध दे, बहत्तर वर्ष की आयुष्य पूर्ण कर और गरणधर सुधर्मा को अपने उत्तराधिकारी के रूप में पट्टधर पद देकर भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों में कहीं इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि स्वयं भगवान् महावीर ने प्रार्य सुधर्मा को अपने निर्वाण के समय अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया फिर भी उपरोक्त गाथाओं में प्रकट किये गये भाव सभी दृष्टियों से विचार करने पर संगत प्रतीत होते हैं। क्योंकि त्रिकालज्ञ सर्वदर्शी प्रभु अपने निर्वाण से पूर्व संघहित के अत्यन्त महत्वपूर्ण इस प्रश्न का स्पष्ट रूप से हल न करें कि उनके पश्चात् चतुर्विध तीर्थ की सुचारु रूप से व्यवस्था करने वाला उनका उत्तराधिकारी कौन होगा, इस बात को मानने के लिये संभवतः कोई विचारक तैयार नहीं होगा। मागम एवं इतिहास के मर्मज्ञ इस पर विचार करें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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