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________________ मौर्यवंश का अभ्युदय] दशपूर्वघर-काल : आर्य स्थूलभद्र ४३५ कर दौड़ते हुए चन्द्रगुप्त को एकान्त में रोका और उसके कान में कहने लगा"चन्द्रगुप्त! तुम महान् भाग्यशाली हो, बिना उपचार के ही तुम्हारा प्राणहारी रोग स्वतः शान्त हो रहा है। पर्वतक की मृत्यु तुम्हारे लिये वरदान सिद्ध होगी। आगे चल कर एक न एक दिन तुम्हें इस पर्वतक को मार डालने के लिये बड़ा प्रयास करना पड़ता । यह राजनीति का अटल सिद्धान्त है कि अपने आधे राज्य के अधिकारी को जो मारने में पहल नहीं करता वह एक न एक दिन स्वयं ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है । तुम्हें तो इसे एक न एक दिन मारना ही था। आज यह तुम्हारे द्वारा बिना किसी प्रकार का प्रयास किये ही स्वयं मर रहा है, तो इसे मरने दो । अपने इस भाग्योदय को मौन धारण कर चुपचाप देखते रहो।" अपने भाग्यविधाता चाणक्य की आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस चन्द्रगुप्त में नहीं था। अन्ततोगत्वा विषकन्या के विषाक्त प्रारणहारी पसीने के प्रभाव से पर्वतक पंचत्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार वीर निर्वाण संवत् २१५ में जिस वर्ष कि प्राचार्य स्थलभद्र का स्वर्गवास हा, उसी वर्ष नन्दवंश का अन्त, पर्वतक का प्राणान्त और पाटलिपुत्र के विशाल साम्राज्य तथा पर्वतक के राज्य पर चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक हुआ। चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण-काल के सम्बन्ध में मतमद चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य की सहायता से वीर निर्वाण संवत् २१५ में नन्द राजवंश का अन्त कर पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर अधिकार किया, यह जैनों की प्राचीन काल से मान्यता चली आ रही है। इस मान्यता की पुष्टि जैन परम्परा के प्रति प्राचीन ग्रन्थ 'तित्थोगालियपइण्णा' के निम्नलिखित उल्लेख से होती है : जं रयरिंग कालगको अरिहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयरिणमवंतीए अभिसित्तो पालो राया ।। पालग रण्णो सट्टी, परणपणसयं वियारिण गंदाणं । मुरियाणमट्ठिसयं तीसा पुण पूसमित्ताणं ॥ अर्थात् जिस रात्रि में तीर्थकर भगवान् महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया, उसी रात्रि में पालक राजा का अवन्ती के राज्य सिंहासन पर अभिषेक हुप्रा । पालक का ६० वर्ष तक, तदनन्तर नन्दों का १५५ वर्ष तक, नन्दों के पश्चात् मौर्यों का १०८ वर्ष तक और तदनन्तर पुष्यमित्र का ३० वर्ष तक राज्य रहा। कालान्तर में : एवं च श्री महावीर मुक्त वर्षशते गते । पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः ।।३३६।। प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा अपने परिशिष्ट पर्व में उल्लिखित इस श्लोक के आधार पर दूसरी नवीन मान्यता प्रचलित हई कि वीर नि० सं० १५५ में नन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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