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________________ ४३३ ग्रा० म० से चा० को शिक्षा] दशपूर्वधर-काल : प्रायं स्थूलभद्र चन्द्रगुप्त और पर्वतक की सम्मिलित सैन्य शक्ति धननन्द के लिये अजेय बन गई । अन्ततोगत्वा तुमुल युद्ध के पश्चात् मगध की सेना युद्धस्थल छोड़ कर भाग खड़ी हुई । पाटलीपुत्र का पतन होते ही चन्द्रगुप्त ने धननन्द को जीवितावस्था में पकड़ लिया । इस सैनिक अभियान की सफलता का सारा श्रेय चाणक्य को दिया जा सकता है, जिसकी गूढ़ कूटनीतिक चालों के कारण चन्द्रगुप्त और पर्वतक की सेनायों को निरन्तर सफलताएं प्राप्त होती रहीं। नन्दवंश का अन्त : मौर्यवंश का अभ्युदय चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य के समक्ष बन्दी-वेष में धननन्द को उपस्थित किया। धननन्द ने चाणक्य के सम्मुख प्रागणभिक्षा मांगते हुए कहा कि वह अब एकान्त में धर्म-साधना करना चाहता है। चारणक्य ने धननन्द की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए कहा कि वह अपनी दोनों रानियों, एक पुत्री और यथेप्सित धन-सम्पत्ति के साथ एक रथ में बैठ कर जहां चाहे वहां जा सकता है। " चाणक्य के आदेशानुसार धननन्द ने अपनी दोनों पत्नियों और एक पुत्री को रथ में बिठाया और जीवनयापन योग्य पर्याप्त सम्पत्ति ले कर रथारूढ़ हो रथ को हांक दिया । जिस समय नन्द ने अपने रथ को हांका दैवयोग से उसी समय चन्द्रगुप्त का रथ उसके सामने की ओर से प्राया। रथारूढ़ तेजस्वी युवक चन्द्रगुप्त पर दृष्टि पड़ते ही धननन्द की राजकुमारी अपना समस्त भान-कुल-कान आदि विस्मृत कर बैठी । जिस प्रकार चकोरी चन्द्र की ओर विस्फारित नेत्रों से देखती रहती है उसी प्रकार धननन्द की कन्या अपनी सुध-बुध भूले अपलक दृष्टि से चन्द्रगुप्त की ओर निहारती ही रह गई ! अनुभवी वृद्ध धननन्द से यह छुपा न रहा कि उसकी पुत्री चन्द्रगुप्त पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर चुकी है। उसने रथ रोक कर अपनी पुत्री से कहा- "वत्से ! क्षत्रिय कन्याओं के लिये स्वयंवर ही वर-चयन का श्रेष्ठ माध्यम माना गया है। तुम अपनी इच्छानुसार प्रसन्नतापूर्वक चन्द्रगुप्त का वरण करो। प्रब तुम मेरे रथ से उतर कर चन्द्रगुप्त के रथ पर आरूढ़ हो जाओ और इस तरह मुझे तुम्हारे लिये सुयोग्य वर ढूंढने की चिन्ता से सदा के लिये मुक्त कर दो।" अपने पिता की बात सुनते ही वह राजकन्या मन्त्रमुग्धा सी तत्काल धननन्द के रथ से उतर कर चन्द्रगुप्त के रथ पर चढ़ने लगी। चन्द्रगुप्त के रथ पर नन्दराज की कन्या द्वारा एक पैर ही रखा गया था कि उसके पहियों के ६ आरे चर्र-चर्र शब्द करते हुए तत्काल टूट गये। __ यह देखते ही - "अरे ! मेरे रथ पर यह महा अमंगलकारिणी कौन प्रारूढ़ हो रही है, जिसके द्वारा रथ में एक पैर के रखने मात्र से मेरे रथ के आरे टूट गये। यदि यह पूरी तरह से रथ में बैठ गई तो मेरे रथ का ही नहीं संभवतः मेरा स्वयं का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायगा" - यह कहते हुए चन्द्रगुप्त ने नन्ददुलारी को अपने रथ में बैठने से रोका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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