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________________ श्रागमवाचना प्र० लेखन ] सामान्य पूर्वघर-काल : देवद्धि क्षमाश्रम ૬૧ उपरोक्त उल्लेखों के आधार पर यह अनुमान होता है कि देवद्धिगणी के सूत्र - लेखन से पहले भी जैन शास्त्र लिखे जाते थे । लेखनारंभ के निश्चित समय के सम्बन्ध में तो कुछ नहीं कहा जा सकता पर इतना कह सकते हैं कि आर्य रक्षित के समय से ही पूर्वी के अतिरिक्त शास्त्रीय भाग का अल्प प्रमाण में लेखन प्रारम्भ हो गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं । परन्तु उन्होंने सम्पूर्ण श्रागमों का लेखन करवाया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । श्रागम लेखन के लिये तो देवद्धि क्षमाश्रमरण का काल ही सर्वसम्मत माना जाता है। संभव है पूर्ववर्ती आचार्यों के समय में शास्त्र के कुछ विशिष्ट स्थलों का आलेखन किया गया हो । यदि देवद्ध की तरह पहले ही सम्पूर्ण शास्त्रों का किसी ने लेखन करवा लिया होता तो श्रुतरक्षण हेतु उन्हें इस प्रकार चिंतित होने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। स्कंदिल के समय में श्रमणोपासक पोलाक द्वारा सम्पूर्ण प्रवचन के लेखन का कथन भी किसी शास्त्र विशेष अथवा स्थल विशेष को लेकर ही संगत हो सकता है । देवद्ध ने अपने श्रागम-लेखन कार्य में उन लिखित भागों को अपने अभ्यस्त पाठों और नागार्जुनपरम्परा के पाठों के साथ मिलाकर उन्हें व्यवस्थित किया होगा । देवद्धिगरणी को इस कार्य में श्रार्य कालक का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ और इस प्रकार दोनों वाचनाओं को एक संयुक्त रूप देने में श्राचार्य देवद्ध ने सफलता प्राप्त की । इस प्रकार ग्रागमलेखन को प्रमुख मानते हुए भी दोनों वाचनानों के पाठों को ध्यान में रखा गया है । अतः इसे 'वाचना के साथ आगमलेखन' कहना ही उचित होगा । दुष्षमाश्रमरणसंघस्तोत्र यंत्र की प्रति में एक गाथा उपलब्ध होती है - वालब्भसंघकज्जे, उज्जमियं जुगपहारणतुल्लेहिं । गंधव्ववाइवेयाल, संतिसूरीहि बलहीए ॥२॥ गाथा में बताया गया है कि युगप्रधान तुल्य गन्धर्व - वादि वैताल शान्तिसूरि ने वालभ्य संघ के कार्य हेतु वल्लभी नगरी में उद्योग किया । गाथा में आये हुए "वालब्भसंघकज्जे उज्जमिय" इस पद पर से कुछ विद्वान् यह प्राशंका अभिव्यक्त करते हैं कि दोनों वाचनात्रों को संयुक्त कर एक रूप देने में दोनों वर्गों के बीच संघर्ष हुआ और उस समय वालभ्य संघ अर्थात् नागार्जुनीय परम्परा के श्रमरणसंघ में प्रचलित वाचना को मनवाने के लिये शान्तिसूरि ने अपनी पूरी शक्ति लगाई । पर हमारे विचार से इस प्रकार की आशंका करना उचित प्रतीत नहीं होता । काररण कि आर्य स्कंदिल और प्रार्य नागार्जन की वाचनाएं जो दोनों के स्वर्गस्थ होने के कारण एक नहीं की जा सकीं, उनको एक रूप देने के लिये दोनों परम्पराओं के श्रमणों ने सद्भावपूर्वक आचार्य देवद्धि के नेतृत्व में मुनि-परिषद की । ऐसी स्थिति में विवाद की आशंका करना वस्तुतः उनकी सद्भावना को भुलाना होगा । वाचना को एक रूप देने की भावना ही उनके अनाग्रह भाव को प्रकट करती है । फिर जिस परिषद् के नेता आर्य देवद्धि एवं भायें 'कालक जैसे प्रमुख श्रमण हों, वहां शास्त्रीय पाठों को लेने न लेने जैसे महत्वपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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