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________________ १८. पायं नागहस्ती] . दशपूर्वधर-काल : पायं नागहस्ती ५५३ . २. प्रार्य नागहस्ती वाचकवंश के प्रभावक प्राचार्य माने गये हैं, जिनके लिये देवद्धि क्षमाश्रमण ने स्पष्ट शब्दों में कहा है - "वड्ढ उ वायगवंसो, जसवंसो अन्जनागहत्थीणं।" __ अर्थात् -प्रार्य नागहस्ती का वाचकवंश यशोवंश की तरह वृद्धिगत हो। गाथा में नागहस्ती को वाचकवंश से सम्बद्ध बताया गया है, जब कि वज्रसेन संतानीय पार्य नाग नाइली शाखा, नागेन्द्र गच्छ और नागेन्द्र कुल के प्रवर्तक माने गये हैं। ऐसी स्थिति में यदि वज्रसेन संतानीय नागेन्द्र ही वाचकवंशीय नागहस्ती. होते तो उनके लिये 'वड्ढउ वायगवंसो' के स्थान पर 'वड्ढउ नाइलवंसो' इस प्रकार का पद प्रयुक्त किया जाता। क्योंकि आर्य नाग नाइल शाखा, नागेन्द्र कुल एवं नागेन्द्र गच्छ के प्रवर्तक माने गये हैं। ___ श्वेताम्बर-परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा के प्रमुख ग्रंथों में भी आर्य मंगू और नागहस्ती का परिचय उपलब्ध होता है। श्वेताम्बर साहित्य की तरह. यद्यपि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में आर्य मंगू और आर्य नागहस्ती का कोई खास परिचय प्राप्त नहीं होता फिर भी कसायपाहुड़ की जयधवला टीका में प्राचार्य वीरसेन ने आर्य मंगू और आर्य नागहस्ती को रिणकार यतिवृषभ के गुरु होने का उल्लेख करते हुए निम्नलिखित रूप में इन दोनों की स्तुति की है : गुणहरवयणविणिग्गय, गाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो। जेणज्जमखुणा सो, सणागहत्थी वरं देऊ ।।७।। जो अज्ज मंखु सीसो, अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।।८।। इन गाथाओं में बताया गया है कि जिन आर्य मंखु और नागहस्ती ने गुणधराचार्य के मुख-कमल से विनिर्गत गाथाओं के सम्पूर्ण अर्थ को सम्यक्रूपेण अवधारण किया, वे प्राचार्य मुझे वर प्रदान करें। जो प्रार्य मंख के शिष्य और आर्य नागहस्ती के भी अंतेवासी हैं, वे वृत्तिसूत्र के कर्ता यतिवृषभ मुझे वर प्रदान करें। नन्दीसूत्र की स्थविरावली के समान ही दिगम्बराचार्य वीरसेन ने 'जयघवला' में इन दोनों आचार्यों को कर्मसिद्धान्त के विशिष्ट ज्ञाता और प्रागम-ज्ञान के पारगामी के रूप में स्वीकार किया है । 'जय धवला' टीका में बताया गया है कि गुणधराचार्य द्वारा १८० गाथाओं में 'कसायपाहुड़' का उपसंहार कर लिये जाने पर वे सूत्र गाथाएं आचार्य-परम्परा से आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती को प्राप्त हईं। तदनन्तर उन दोनों प्राचार्यों के चरणकमलों में बैठकर भट्टारक यतिवृषभ ने उन १८० गाथाओं के अर्थ को भलीभांति समझा और प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित हो उन पर चूरिणसूत्र की रचना की । जैसा कि टीका में कहा है -- "पुणो तापो चेव सुत्तगाहाम्रो पाइरियपरंपराए प्रागच्छमाणीयो अज्ज .मखुनागहत्थीणं पत्तागो। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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