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________________ . सामान्य पूर्वघर-काल : मार्य गोविन्द ((२८) मार्य गोविन्द - वाचनाचार्य आर्य गोविन्द एक विशिष्ट अनुयोगधर और प्रसिद्ध वाचक हुए हैं। नंदीसूत्र स्थविरावली की मूल गाथाओं में प्रार्य गोविन्द का नाम नहीं मिलता किन्तु प्राचार्य मेरुतुंग की विचारश्रेणी में नागार्जुन और भूतदिन के बीच भार्य गोविन्द का नाम आता है। नंदीसूत्र स्थविरावली की प्रक्षिप्त दो गाथानों में भी भूतदिन से पूर्व प्रार्य गोविन्द की स्तुति की गई है ।' __ आर्य गोविन्द आर्य महागिरि की परम्परा के मुख्य वाचक रहे अथवा शाखान्तर के, इस सम्बन्ध में निश्चित एवं स्पष्ट उल्लेख न मिलने पर भी इतना तो असंदिग्धरूपेण कहा जा सकता है कि प्रार्य गोविन्द भी तत्कालीन विशिष्ट वाचक प्राचार्य थे। निशीथ चूणि के ११वें उद्देशक में 'ज्ञानस्तेन' का वर्णन करते हुए चूणिकार ने बताया है : गोविन्दज्जो नाणे, दंसणे सुत्तट्ट हेउ अट्ठावा। पावादिय उवचरगा, उदायिवधगादिगा चले ॥३६५६।। आर्य गोविन्द के ज्ञानस्तेन होने की घटना का चूर्णिकार ने निम्नलिखित रूप में उल्लेख किया है : "गोविन्द नामक एक बौद्ध भिक्षु ने किसी जैनाचार्य के साथ वाद में १८ बार पराजित हो चुकने पर सोचा- "जब तक इनके सिद्धान्त का स्वरूप नहीं जान लिया जायगा तब तक इनको नहीं जीता जा सकेगा।" यह विचार कर गोविन्द ने जैन सिद्धान्तों का अध्ययन करने की अपनी प्रान्तरिक इच्छापूर्ति मात्र के लिये एक जैनाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। सामायिक प्रादि श्रुत का अभ्यास करते हुए उन्हें जब शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्ति हो गई तब उन्होंने गुरू को नमस्कार करते हुए निवेदन किया- "भगवन् ! मुझे व्रत ग्रहण करवाइये।" गुरू ने कहा- "वत्स ! तुम्हें तो पंच महाव्रत ग्रहण करवाये जा चुके हैं, अब तुम्हें मोर कोनसे व्रत दिये जायं ?" इस पर गोविन्द ने गुरु के समक्ष अपनी व्याज-दीक्षा का वास्तविक वृत्तान्त कह सुनाया। प्राचार्य ने अनुग्रह कर उन्हें पुनः व्रत ग्रहण करवाये । समय पा कर वही मार्य गोविन्द प्राचार्य-पद के अधिकारी हुए। निशीय घरिणकार ने "गोविन्द नियुक्ति" का उल्लेख किया है। इससे मार्य गोविन्द नियु. क्तिकार भी प्रमाणित होते हैं। प्राज न तो गोविन्द-नियुक्ति ही उपलब्ध है पोर न इस प्रकार का कोई उल्लेख ही कि वह नियुक्ति किस मागम पर थी। ऐसी स्थिति में प्रमारणाभाव के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि प्रार्य गोविन्द ने ' गोविन्दाणं पि नमो, पणुमोगे विउसपाररिंगदाणं । नि संतिदयाएं, पसणे दुस्मभिदाणं ॥ [नंदीस्थविरावली] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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